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२६. समता की चेतना का विकास
जागरूकता का अंतिम बिन्दु है समता। यह आज का प्रिय शब्द है। विषमता के विषय में जितना चिन्तन वर्तमान युग में हुआ है, उतना अतीत में नहीं हुआ होगा। आज सामाजिक और आर्थिक विषमता मान्य नहीं है। इनके विषय में अनेक क्रान्तियां घटित हुई हैं और अनेक भविष्य के गर्भ में हैं। समाज के स्तर पर समता चाहिए। आर्थिक समानता भी अपेक्षित है। निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि आज का सबसे अधिक अप्रिय शब्द है विषमता और सबसे अधिक प्रिय शब्द है समता। ___ आज के विचारकों ने सामाजिक और आर्थिक विषमता के विषय में बहुत चिन्तन किया है, किन्तु चैतसिक विषमता और समता के विषय में कम चिन्तन किया है। हम सोचें, आर्थिक और सामाजिक विषमता का कारण क्या है? मनुष्य के चित्त की स्थिति समतामय नहीं है, इसलिए उसका प्रतिबिम्ब सामाजिक व्यवस्था पर भी पड़ता है और अर्थ-व्यवस्था पर भी पड़ता है। पर हमने मूल कारण को परदे के पीछे रखा है और जो मूल कारण नहीं है उसको बहुत आगे ला दिया है। उसे ही सिंहासन पर बिठा दिया है। यही कारण है कि समस्या सुलझने के बदले उलझती जा रही है। ___ संसारी जीवन और आध्यात्मिक जीवन की सरलतम परिभाषा यह की जा सकती है कि द्वन्द्वों का जीवन संसार का जीवन है और द्वन्द्वमुक्त जीवन अध्यात्म का जीवन है। चेतना के स्तर पर अनेक द्वन्द्व हैं और ये द्वन्द्व संसार का निर्माण करते हैं।
संसार क्या है? यह एक अनुभूति है द्वन्द्व की। जोड़ा होना, युगल का होना, यह है संसार। इसमें सब दो होते हैं, एक कोई नहीं होता। एक होना अध्यात्म है, दो होना संसार है। लाभ और अलाभ यह एक द्वन्द्व है। पदार्थ और व्यक्ति दो हैं। इष्ट पदार्थ का योग होना लाभ है। इष्ट पदार्थ का अयोग होना, या जो चाहा उसकी प्राप्ति न होना अलाभ है। यह एक द्वन्द्व जोड़ा बन गया। आदमी की चैतसिक शक्ति का बहुत बड़ा भाग इस द्वन्द्व में बीतता है। इसने एक विचित्र मानसिक स्थिति का निर्माण किया है। इसके द्वारा एक आदत निर्मित हुई है। वह है सुख-दुःख की आदत। जब जो चाहा उसकी पाप्ति में आदमी प्रसन्न हो जाता है मरत का गंदन करता है और जो नाता र
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