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________________ ज्ञाता-द्रष्टा चेतना का विकास 189 नहीं देता।' मां बोली—बेटा! तुम झाडू लगाओगे? यह तो हम स्त्रियों का काम है। तुम जाओ, मैं झाडू लगा दूंगी। दोनों में आग्रह होने लगा। बहूरानी दोनों के आग्रह को देखकर हंस रही थी, पर झाडू मैं लगा दूंगी ऐसा कहना वह नहीं चाहती थी आलस्य के कारण। वह मां के पास आई बोली—आपस में क्यों आग्रह कर रहे हैं। एक उपाय बताती हूं, एक दिन झाडू आप लगा लें और एक दिन झाडू ये लगा लेंगे। आग्रह खत्म हो जाएगा। जो आलस्य में जीते हैं उनकी चेतना ज्ञाता-द्रष्टा की नहीं होती। कुछ कहते हैं, हम काम नहीं करते, केवल देखते रहते हैं। यह ज्ञाता-द्रष्टा की चेतना नहीं है। यह है अकर्मण्यता की चेतना। यह जीवन का बड़ा विघ्न है। यह कर्तृत्व का दोष है। हम कर्ता की स्थिति को अस्वीकार न करें। यह मानकर चलें कि जब तक शरीर है तब तक कर्त्ता की चेतना भी साथ में रहेगी। उसे छोड़ा नहीं जा सकता। वह कर्ता की चेतना ज्ञाता और द्रष्टा की चेतना से प्रभावित रहेगी तो उसमें दोष कम आएंगे। यदि वह कर्ता की चेतना ज्ञाता और द्रष्टा की चेतना से प्रभावित नहीं होगी तो उसमें बहुत दोष आ जाएंगे। कर्त्तापन सिरदर्द बन जाएगा। अनेक व्यक्ति इस अहंकार का भार ढोते हैं कि मैं हूं तब तक परिवार का काम चलता है। मैं न रहा तो न जाने क्या हो जाएगा? यह अहं अनेक व्यक्तियों में होता है और इसलिए वे मरते दम तक काम में लगे रहते हैं। काम को छोड़ना नहीं चाहते। यह भूलभरा चिन्तन है। होना तो यह चाहिए कि अमुक अवस्था के बाद कामकाज, व्यापार से निवृत्त होकर व्यक्ति दूसरी दिशा में प्रस्थान करे। उसे सोचना चाहिए, इतने वर्षों तक मैंने काम किया, अब दूसरों पर भरोसा करूं, उन्हें काम सौंप दूं। वह यह न सोचे कि मेरे आधार पर ही गाडी चल रही है। जब यह मिथ्या धारणा या अज्ञान पैदा होता है तब व्यक्ति डूब जाता है। यह अज्ञान बहुत खतरनाक है। यह अनेक समस्याएं पैदा करता है। यह बात स्पष्ट समझ लेनी चाहिये कि कोरी प्रमाद की चेतना कर्ता के अहंकार को पैदा करती है। यह कर्तव्य का अहंकार समूचे जीवन में उलझनें उत्पन्न करता है। ये उलझनें संघर्ष और कलह को जन्म देती हैं। हम सुनते हैं, मैं था तब यह हो गया, अन्यथा कठिनाई होती। यदि मैं नहीं होता तो तुम्हें पता चलता। इस प्रकार की अहंकारपूर्ण भाषा समूचे समाज में व्याप्त है। न जाने कितने लोग इस प्रकार की बड़ी-बड़ी बातें बनाते हैं। यह टकराव का एक कारण बनता है। इसलिए अप्रमाद की चेतना का विकास बहुत आवश्यक है। अप्रमाद की चेतना का अर्थ है अपने प्रति जागरूक होना। व्यक्ति जितना अपने प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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