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सोया मन जग जाए तक केवल ज्ञाता और केवल द्रष्टा की स्थिति नहीं बनती। तब तक हमारा रूप रहेगा ज्ञाता, द्रष्टा और कर्ता का। तीन बातें रहेगी। शरीर के छूटने के साथ-साथ कर्ता छूट जाएगा और ज्ञाता और द्रष्टा रह जाएगा। पहले तीन अवस्थाएं नहीं। तो फिर हम कैसे कह सकते हैं कि ध्यान के समय केवल जानो
और केवल देखो। ज्ञाता और द्रष्टा रहो। यह एक सापेक्ष बात है। कर्त्तव्य उसके पीछे छिपा हुआ है। कर्ता को उससे अलग नहीं किया जा सकता। कुछ लोग जो ऐसा सोचते हैं कि हम कर्ता नहीं हैं, उनकी बात वास्तव में सही नहीं है। जब तक शरीर है और जब तक मन और वाणी है तब तक हमारा कर्त्तव्य मिट नहीं सकता। हमारी क्रिया के तीन साधन हैं शरीर, वाणी और मन । ये तीन हैं तो हम कर्ता बने रहेंगे। किन्तु कर्तृत्व का परिमार्जन, परिष्कार और शोधन हो जाता है तो फिर ज्ञाता-द्रष्टा की चेतना ऊपर आ जाती है और कर्ता की चेतना नीचे रह जाती है। जब तक इनका परिमार्जन नहीं होता, ज्ञाता और द्रष्टा की चेतना नीचे आ जाती है और कर्ता की चेतना ऊपर आ जाती है। सोने की चौकी का दान तो नीचे चला जाता है और इतना बड़ा दान किया मैंने', यह बात ऊपर आ जाती है। बस, इतना अन्तर होता है नीचे की मंजिल का और ऊपर की मंजिल का। पहली मंजिल में क्या हो और दूसरी मंजिल में क्या हो, इतना ही अन्तर आता है। व्रत की चेतना के बाद चैतन्य के दूसरे सोपान का विकास हो जाता है, तीसरे का विकास करना शेष रहता है। उसकी साधना के लिए लम्बा समय चाहिए। यह ज्ञाता और द्रष्टा की चेतना का विकास कोई एक दिन में नहीं हो जाता और एक बार में नहीं हो जाता। क्योंकि प्रमाद इतना सघन और यह मूर्छा इतनी ज्यादा सघन होती है कि बार-बार सताती है। आलस्य बार-बार सताता है। अकर्मण्यता सताती है। ये सब प्रमाद के ही प्रकार हैं। आलस्य प्रमाद का एक प्रकार है। काम करना जरूरी है पर आलस्य बीच में आ जाता है। कुछ लोग बहुत ज्यादा आलसी होते हैं। वे कुछ काम करना नहीं चाहते। आत्म-साध ना और ध्यान की बात तो बहुत दूर है घर का काम करना भी नहीं चाहते। ऐसी वृत्ति बहुत लोगों में होती है। वे आराम करना और बैठे रहना चाहते हैं।
एक नई बहू आई घर में। वह आलसी थी। कोई भी काम करना नहीं चाहती थी। सासु भली थी। उसने सोचा, नई-नई आई है, धीरे-धीरे ठीक हो जाएगी। सासु जल्दी उठती और मकान में झाडू देती। दो-तीन बार बेटे ने देखा। उसे यह अच्छा नहीं लगा। वह मां का भक्त था। उसने सोचा, एक उपाय करना चाहिए, जिससे कि मां का झाडू छूट जाए और पत्नी काम करने लगे। दूसरे दिन जब मां झाडू लगा रही थी, तब वह गया और मां से कहा- 'मां! झाडू मुझे दो। तुमको यह शोभा
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