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________________ ज्ञाता-द्रष्टा चेतना का विकास 187 केवल जानना और देखना, किन्तु उससे प्रभावित न होना बहुत संकड़ी पगडंडी है। यह बड़ा कठिन कार्य है, पर अभ्यास के द्वारा यह स्थिति बनती है, बन सकती है। इस चेतना का विकास होने पर पहली बात तो यह होती है कि जिस चेतना में ज्ञाता-चेतना और द्रष्टा-चेतना विकसित हो गई वह अकरणीय कार्य नहीं कर सकता। कोई भी अकरणीय कार्य नहीं करेगा। वही काम करेगा जो करणीय है। अकर्त्तव्य उसके द्वारा कभी संभव नहीं हो सकता। दूसरी बात है कि कर्तव्य करेगा पर उसका अहंकार कभी नहीं करेगा। यह बड़ी मुश्किल बात है। आदमी बहुत सारे काम करते हैं। उनके साथ अहंकार जुड़ जाते हैं। एक सेठ ने सोचा कि मैं मेरी मां की ऐसी पूजा करूं जो सबको याद रहे। मेरा नाम सारी दुनिया में फैल जाये। यह सोचकर उसने एक सोने की चौकी बनाई। बहुत बड़ी चौकी। एक दिन पूजा का समय रखा। पंडितजी को बुला लिया। सारा कार्यक्रम चला और जब कार्य संपन्न होने को आया तो सेठ उठा और बोला कि 'आज मैंने अपनी मां की अर्चना की है। अब अर्चना संपन्न हो रही है और मैं एक घोषणा करने जा रहा हूं कि जिस चौकी पर मेरी मां बैठी है, वह चौकी मैं पंडितजी को देता हूं।' यहां तक तो ठीक है कि चौकी पंडितजी को दे दी, पर आगे बोला (आदमी का अहं बोला है) पंडितजी! इतना बड़ा दानी कोई मिला आपको दुनिया में आज तक!' सारी बात बदल गई। सारे लोग देखते रह गए सेठ की ओर। पंडित भी बड़ा स्वाभिमानी था, त्यागी था। अगर लोभी होता तो सह लेता। वह खड़ा हुआ। अपनी जेब से एक रुपया अधिक रखकर बोला-'सेठ साहब! इस चौकी पर एक रुपया अधिक रखकर आपको लौटा रहा हूं। मैं आपसे पूछना चाहता हूं, क्या इससे बड़ा त्यागी आपको कोई मिला?' __ आदमी को करणीय का अहंकार भी बड़ा सताता है। जब ज्ञाता-द्रष्टा की चेतना जाग जाती है तो दोनों स्थितियां निष्पन्न होती हैं। वह अकरणीय काम तो करता ही नहीं और करणीय का अंहकार भी नहीं करता। यह दो प्रकार की चेतना निष्पत्ति में आती है। तीन बातें हो गई अप्रभावित होना, अकरणीय न करना और करणीय का अहंकार न करना। इसका अर्थ है, ज्ञाता और द्रष्टा की चेतना। जब तक शरीर है तब तक यह नहीं हो सकता कि आदमी कोरा ज्ञाता-द्रष्टा रहे। एक सशरीर अवस्था और एक अशरीर अवस्था, शरीर मुक्त अवस्था। शरीर मुक्त अवस्था में कोई भी आत्मा केवल ज्ञाता और केवल द्रष्टा रह सकती है। कुछ भी करना नहीं होता। किन्तु जब तक शरीरधारी आत्मा है, शरीर का कवच है, आवरण है तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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