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ज्ञाता-द्रष्टा चेतना का विकास
185 ___ यह ध्यान का अभ्यास उस अप्रमाद की चेतना या जागरूकता को विकसित करने का अभ्यास है। हमारा अप्रमाद बढ़े, जागरूकता बढ़े। हम जागरूक बन जाएं। आदमी जितना अपने प्रति जागरूक, उतना घटनाओं से अप्रभावित। आदमी जितना अपने प्रति मूच्छित या सुषुप्त उतना ही घटनाओं से प्रभावित । घटनाओं से प्रभावित होने के कारण है अपने प्रति सुषुप्ति। घटनाओं से प्रभावित होने के कारण है अपने प्रति जागरूक रहना। ध्यान का मतलब है अपने प्रति जागरूक होना। जो घटनाओं के प्रति जागरूक होता है वह ध्यान नहीं कर सकता। अभी कोई हल्ला आया, तत्काल ध्यान उधर चला गया। अभी कोई बोला, तत्काल ध्यान उधर चला गया। अभी कोई गंध आई, ध्यान उधर चला गया। मक्खी आकर बैठी, ध्यान उधर चला गया। जितना ध्यान बाहर की घटनाओं की ओर जाएगा, ध्यान भंग होता चला जाएगा। और जितना अपने प्रति जागरूक होगा उसका ध्यान भंग नहीं होगा। बाहर जो हो रहा है, हो रहा है, कोई मतलब नहीं है। और यह हमारे व्यावहारिक सफलता का भी बहुत बड़ा सूत्र है। आदमी इतनी घटनाओं के बीच जीता है, हजारों-हजारों घटनाएं घटती रहती हैं। किन्तु अप्रभावित वही रह सकता है जिसने अपने प्रति जागरूक होने का पाठ पढ़ा है। व्यावहारिक क्षेत्र का भी यह बड़ा सूत्र है।
सिकन्दर महान् योद्धा था। विश्व विजेता था। एक बार वह विजय प्राप्त कर आया। वह बहुत प्रसन्न था और सारा नगर उसके विजयोत्सव को मनाने में तल्लीन था। कुछेक मंत्री इस अवसर का लाभ उठाना चाहते थे। वे सिकन्दर के सामने जाकर बोले—यदि आप क्षमादान का आश्वासन दें तो हम एक महत्त्वपूर्ण बात की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहेंगे। सिकन्दर प्रसन्न मूड में था। उसने कहा—'जो कहना हो वह स्पष्ट कहो। मैं क्षमादान देता हूं।' एक मन्त्री ने कहा—सम्राट! अब यूनान का पतन सन्निकट है। सिकंदर ने पूछा क्यों ? वह बोला सम्राट ! आजकल आपकी मां हमारे कार्यों में बहुत हस्तक्षेप करती हैं। कोई भी काम ठीक व्यवस्था से चलने नहीं देतीं। हम सब हैरान हो गए हैं। हम मानते हैं कि इतनी विजय होने के बाद भी समस्याएं पैदा होंगी और हमारा विशाल साम्राज्य नष्ट हो जाएगा। सम्राट ने सुना। मन क्रोध से भर गया, पर क्षमादान दे चुका था, इसलिए मौन रहा। वह मां का भक्त था। मां के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। वह मानता था कि विजय का सारा श्रेय मां के अशीर्वाद को है। वह मां के प्रति ऐसी बात सुनने के लिए तैयार नहीं था। पर क्षमादान का पलड़ा भारी था। इधर क्षमादान और उधर क्रोध द्वन्द्व चलता रहा। फिर सम्राट ने
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