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ज्ञाता-द्रष्टा चेतना का विकास
183 है और कौन-सा खराब है। मुहूर्त वाली बात चली। एक समय ऐसा होता है कि दुर्घटनाएं बहुत ज्यादा होती हैं। आदमी सौर-मंडल से प्रभावित होता है। उस समय मानसिकता और चिंतन बदल जाता है, प्रवृत्तियां बदल जाती हैं। प्रभावित होने के अनेक कारण हैं। आन्तरिक कारण हैं अपने भीतर के रसायन, कर्मों के विपाक । ये भी बदलते रहते हैं।
एक ईश्वरवादी ने परिकल्पना की कि ईश्वर किसी को दंड देता है तो उसका गला पकड़ कर दंड नहीं देता, उसे जेल में नहीं डालता। प्रश्न हुआ कि वह दंड कैसे देता है? उसने कल्पना की कि जब ईश्वर को दण्ड देना होता है, तब वह उसकी बुद्धि को भ्रष्ट कर देता है। और ज्योंही उसकी बुद्धि भ्रष्ट हुई वह अपने आप दंड पा लेता है। किसी कर्मवादी ने कल्पना की कि कर्म का जब विपाक होता है तो अपने आप वह दंड पा लेता है। एक कहावत चल पड़ी कि 'बुद्धि कर्मानुसारिणी' आदमी का जैसा कर्म होता है वैसी ही बुद्धि हो जाती है। बुद्धि का नाश होता है तो आदमी नष्ट हो जाता है। इन सारे चिन्तनों का निष्कर्ष यह है कि आदमी प्रभावित होता है अपने आन्तरिक कारणों से भी और बाहरी कारणों से भी। यह प्रभावित दशा विघ्न पैदा करती है।
सामने कोई क्रोध कर रहा है। क्रोध को देखा और देखने वाला व्यक्ति प्रभावित हो जाएगा। उसमें प्रमाद की चेतना जागृत हो जाएगी। ___ एक आदमी पीड़ा से रो रहा है। दूसरे व्यक्ति के कोई पीड़ा नहीं है। पर वह उसे देखकर रोने लग जाएगा।
एक भाई मेरे पास आकर बोला, मेरी एक समस्या है, मैं संवेदनशील हं। मेरे सामने कोई रोता है तो मुझे भी रुलाई आ जाती है। लोग कहते हैं कि वह रो रहा है, उसके तो कारण है, पर तू क्यों रो रहा है? मैं कहता हूं कि पता नहीं, वह रो रहा था अत: मैं भी रोने लग गया। कोई हंसता है तो हंसने लग जाएगा। इस प्रभावित परिस्थिति और घटना के साथ-साथ आदमी जैसे बदलता है वैसे चेतना बदल जाती है।
इस अवस्था में ज्ञाता और द्रष्टा की चेतना तो नीचे दब जाती है और कर्ता की चेतना ऊपर आ जाती है। आदमी में 'मैं करने वाला हूं' यह कर्तृत्व का अहंकार जाग जाता है। यह कर्तृत्व की चेतना कभी हर्ष पैदा करती है और कभी शोक पैदा करती है। कभी भय पैदा करती है, कभी प्रियता पैदा करती है और कभी अप्रियता पैदा करती है। आदमी इतने सांग बदलता है कि बहुरूपिये तो कम सांग बदलते हैं, पर आदमी एक दिन में सौ सांग बदल लेता है। कभी तो इतना
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