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आत्म- तुला की चेतना का विकास
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हैं, बुराई के कीटाणु समाप्त हो जाते हैं। खुजलाना अच्छा लगता है। इसीलिए माताएं कभी-कभी बच्चों के हाथ बांध देती हैं। बच्चे जानते नहीं, खुजलाते हैं और लहुलुहान हो जाते हैं। बड़े आदमी भी खुजलाने में रस लेते हैं और उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि खुजलाने में जो आनन्द है, वह अन्यत्र नहीं है । ज्योंही खुजलाने के कीटाणु समाप्त होते हैं, तब लगता है कि खुजलाना मूर्खता थी । जो एक अवस्था या स्तर तक मीठा लगता था, वही एक भूमिका में खराब और मूर्खतापूर्ण काम लगने लगता है ।
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शराब पीना अच्छा मानते हैं। पर एक भूमिका में आदमी को अनुभव होता है कि अरे! शराब पीकर मैंने अपना कितना अनिष्ट कर डाला! शारीरिक हानि, मानसिक और बौद्धिक हानि, आर्थिक हानि —ये सभी हानियां मुझे शराब के कारण भोगनी पड़ीं।
ये दो प्रकार के जीवन हैं। एक भूमिका पर कुछ बातें बहुत प्रिय होती हैं और भूमिका के बदल जाने पर वे ही बातें अप्रिय लगने लग जाती हैं। ऐसा क्यों होता है? यह सारा आकर्षण का खेल है। पहले एक प्रकार का आकर्षण होता है और फिर वह आकर्षण बदल जाता है ।
दो चेतनाएं काम करती हैं। एक है व्रत की चेतना और दूसरी है अव्रत की चेतना । जब व्रत की चेतना जागती है, संयम की चेतना उद्भुत होती है तब बहुत सारे आकर्षण बदल जाते हैं। बहुत लोग सोचते हैं, कठोर भूमि पर सोना कठिन काम है । कोमल मखमली गद्दों को छोड़कर जमीन पर क्यों सोया जाये ? उनका आकर्षण बना हुआ है कोमल गद्दों के प्रति । किन्तु जब उन्हें यह सत्य ज्ञात हो जाता है या अनुभूत हो जाता है कि कोमल शय्या पर सोना स्वास्थ्यप्रद नहीं होता, रीढ़ की हड्डी विकृत हो जाती है तब उनका आकर्षण बदल जाता है। तब वे मानने लगते हैं कि कोमल शय्या खतरनाक है स्वास्थ्य के लिए और काष्ठ पट्ट या नीचे भूमि पर कम्बल या चादर बिछाकर सोना स्वास्थ्यप्रद है। उनका आकर्षण बदल जाता है ।
यह चेतना का रूपान्तरण या आकर्षण का परिवर्तन एक भूमिका पर होता है । वह भूमिका है— प्रिय-अप्रिय को सहन करने की मनोवृत्ति का विकास । यह साधु जीवन की भूमिका है। यही आत्म- तुला है। जब तक यह भूमिका प्राप्त नहीं होती तब तक आत्म- तुला का सिद्धांत कोरा वाचिक रहता है, व्यवहार में नहीं उतरता । वह व्यावहारिक तभी बनता है जब प्रिय-अप्रिय संवेदनों को सहन करने की भूमिका पर व्यक्ति चला जाता है ।
प्रश्न छोटा-सा था पानी का पानी थोड़ा मिला। साधु अनेक थे । व्यवस्था
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