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________________ 178 सोया मन जग जाए की परिक्रमा करता है। उस स्थिति में एक-दूसरे को समझने का मौका मिलता है। आत्म-तुला की भूमिका के बिना एक-दूसरे को समझने का अवसर ही नहीं मिलता। एक आदमी दूसरे को अपने जैसा समझता भी नहीं, क्योंकि बीच में इतने आवरण और पर्दे हैं कि वह यथार्थ तक नहीं पहुंच पाता। इन परदों और आवरणों के आधार पर आदमी को देखते हैं। आवरण गहरा है। सामने वाला दिखाई नहीं देता। हमारे बीच में इतनी दीवारें हैं कि हम उनके पार देख ही नहीं सकते। दो आदमी सटकर बैठे हैं। वे पास में बैठे हैं, यह मान सकते हैं, पर दोनों एक हैं, यह नहीं मान सकते। कभी-कभी दो अत्यन्त विरोधी आदमी भी पास-पास में बैठ जाते हैं। पास बैठने से दो एक नहीं बन जाते। वे एक-दूसरे को समझ नहीं पाते। इसके विपरीत भी होता है। दो आदमी हजारों मील की दूरी पर हैं, किन्तु दोनों एक बने हुये हैं। एकता कब होती है? एक आदमी दूसरे को समझ सके, दोनों का अन्तराल समाप्त हो सके यह चेतना तब जागती है, जब राग-द्वेष का उफान शांत हो जाता है। इस भूमिका का एक महत्वपूर्ण कार्य है आकर्षण की दिशा का बदलाव । जब तक व्यक्ति इस दूसरे सोपान पर पैर नहीं धरता तब तक आकर्षण दूसरा होता है। यहां पहुंचने पर आकर्षण बदल जाता है, दूसरा हो जाता है। जिस व्यक्ति को अभ्याख्यान करने में रस आता था, निन्दा करने में आनन्द आता था, वह इस भूमिका पर पहुंचने के पश्चात् न अभ्याख्यान करता है और न निंदा करता है। उसका रस समाप्त हो जाता है। उसे प्रतीत होता है कि यह तो बुरा कार्य है, जघन्य कार्य है। वह उसे कर नहीं सकता। पहले उसमें पदार्थ के प्रति आकर्षण था। अब सारा आकर्षण बदल गया। खाने में लालसा थी। वह आज नहीं रही। यह बदलाव क्यों आता है? यह एक ही जीवन में आता है, दो जीवनों में नहीं। यदि यह बदलाव दो जीवनों में आये तो उसकी व्याख्या करना कठिन हो जाता है। एक ही जीवन में डाकू सन्त बन जाता है, चोर साहूकार बन जाता है। ऐसा क्यों होता है? कैसे होता है? कब होता है? इसकी व्याख्या करना जटिल है। कल तक डाकू को डाका डालने के प्रति बहुत आकर्षण था, आज सारा आकर्षण बदल गया। यह परिवर्तन क्यों हुआ? इसका उत्तर है कि चेतना में परिवर्तन होता है। जब राग-द्वेष की ग्रंथि का मोचन होता है तब बदलाब की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। - राग और द्वेष आकर्षण पैदा करते हैं। आदमी बुराई करना नहीं चाहता, पर भीतर में बैठा राग-द्वेष उसे बुराई करने को प्रेरित करते हैं। जैसे ही वे मिटते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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