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आत्म- तुला की चेतना का विकास
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ध्यान राग-द्वेष की तीव्रतम ग्रन्थि को तोड़ता है, खोलता है । जब वह गांठ खुलती है, आदतें बदलनी शुरू हो जाती हैं। इस अवस्था में आत्मम- तुला की चेतना जागती है। आत्म-तुला का अर्थ है – समूचे प्राणी जगत् को अपने समान
समझना ।
एक उपासक या साधु अहिंसा स्वीकार करता है । अहिंसा का अर्थ हैआत्म- तुला । सब जीवों को अपने समान समझना । यह चेतना केवल संकल्प से नहीं जागती । कोरा संकल्प ले लिया तो बिल्ली वाली बात होती है। फिर भगवान् को साक्षी बनाना होता है। कोरे संकल्प से काम नहीं होता जब तक संवेदनों को सहने की चेतना नहीं जाग जाती तब तक सब जीवों को आत्म तुल्य मानने वाली बात जीवन में चरितार्थ नहीं हो सकती । प्रिय को भी सहन करें, अप्रिय को भी सहन करें—दोनों को सहन करने पर ही इस आत्म- तुला की चेतना का विकास हो सकता है।
ध्यान का अर्थ है उस चेतना का विकास जिसके द्वारा प्रिय और अप्रिय, अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों को समान भाव से झेल सकें । इस भूमिका का नाम है ध्यान और भूमिका का विकास करना है प्रयोग । शरीर या श्वास को देखना ही ध्यान नहीं है। श्वास को देखना एक आलम्बन है, जिससे मन एकाग्र कर सकें । मन को एकाग्र कर उस गांठ को खोलना है जो बार-बार प्रियता और अप्रियता पैदा करती है। उस गांठ को खोलने के लिये अनेक प्रकार की परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, अनुकूल-प्रतिकूल सबको सहना पड़ता है 1
मुनि को निर्देश है कि वह परीषहों को सहन करे । वह भूख को सहे, प्यास को सहे, सर्दी और गर्मी को सहे । यह देखकर लोग कह देते हैं कि जैन मुनि शरीर को कष्ट देने में धर्म मानते हैं । वे स्थूल दृष्टि वाले हैं। वे स्थूल दृष्टि से घटना देखते हैं। घटना के पीछे जो उद्देश्य है, उसे नहीं देखते। शरीर को सताना उद्देश्य नहीं है । उद्देश्य है राग-द्वेष को शांत करना, प्रिय-अप्रिय संवेदनों से छुटकारा पाना । यह एक अभ्यास है उस गांठ को खोलने का ।
अभ्याख्यान की भावना हिंसा है। जब तक यह भावना है तब तक आत्म- तुला का विकास नहीं हो सकता । अपने समान मान लेने पर या दूसरे शब्दों में आत्म- तुला की चेतना को प्राप्त कर लेने पर दूसरे के साथ व्यवहार कैसा होगा ? जो व्यवहार अपने प्रति होता है, वही व्यवहार दूसरों के प्रति होगा । वही व्यवहार सबके प्रति होगा। यह समानता की बात तब प्राप्त होती है जब मनुष्य आत्म- तुला
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