SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 176 सोया मन जग जाए आचार शास्त्र का पहला सिद्धान्त है इन्द्रिय-विजय। यहां पहंचना है। पर विघ्न और बाधाएं अनगिन हैं। आदमी संकल्प करता है, पर समय आने पर वह संकल्प से डिग जाता है। वह संकल्प से प्रभावित होता है, पर प्रभाव ज्यादा टिकता नहीं। - किसी घर पर एक महात्मा आए। प्रवचन हुआ। अनेक स्त्री-पुरुष प्रवचन में थे। घर की बिल्ली भी बैठी थी। महात्मा ने चोरी पर प्रकाश डाला। श्रोता प्रवचन में ओतप्रोत हो गए। बिल्ली का मन भी प्रभावित हुआ। उसने सोचा, चोरी करना पाप है। मै चोरी-छुपे दूध पीती हूं। यह महापाप है। मैं संकल्प करती हूं कि चोरी नहीं करूंगी। संकल्प हो गया। दिन में कहीं कुछ खाने को नहीं मिला। भूख सताने लगी। सायंकाल ताजा दूध एक बर्तन में पड़ा था। पर संकल्प था कि चोरी से नहीं पीना है। दूसरा देख रहा हो तब पीना है। एक ओर भूख। दूसरी ओर संकल्प। दोनों में द्वन्द्व शुरू हुआ। भूख बढ़ी तब उसने एक रास्ता ढूंढ निकाला। उसने ऊपर मुंहकर कहा—'भगवान् ! और कोई नहीं देखता, पर तुम तो देख ही रहे हो। तुम्हारी साक्षी से मै दूध पी रही हूं। मेरा संकल्प सुरक्षित रहे।' यह कह कर वह दूध पी गई। जब तक आन्तरिक परिवर्तन नहीं होता, राग-द्वेष का उपशमन नहीं होता, तब तक संकल्प भी ज्यादा सहायक नहीं बनता, साथ नहीं देता। फिर संकल्प की पूर्ति के लिए अनेक गालियां निकाली जाती हैं, रास्ते ढूंढे जाते हैं। आदमी मूल बात से दूर चला जाता है। परिष्कार और परिशोधन करना आवश्यक है। कोरा संकल्प काम नहीं देगा। राग-द्वेष का परिष्कार होता है ध्यान की साधना से। हम प्रेक्षा के विभिन्न प्रयोग करते हैं। नाना प्रकार के संवेदन उभरते हैं। एकाग्र होते हैं तब दर्द का अनुभव होता है। उस समय अप्रिय संवदेन शुरू होते हैं। वास्तव में वही क्षण है ध्यान का। एक ओर अप्रिय संवेदन हो रहा है, दूसरी ओर साधक उसे शांत भाव से देख रहा है, कोई प्रतिक्रिया नहीं कर रहा है। यह अभ्यास राग-द्वेष को कम करने का प्रयोग है। साधक ध्यान में है। मुंह पर मक्खियां आकर बैठती हैं, हलन-चलन करती हैं। सताती हैं। उस समय बड़ी विचित्र अनुभूति होती है। साधक स्थिर बैठा है। मक्खियां अपना काम कर रही हैं और साधक अपना काम कर रहा है। यह प्रिय-अप्रिय संवेदनों से बचने का प्रयोग है। ध्यान करने बैठा है। शरीर से पसीना चू रहा है। साधक गर्मी को सह रहा है। शांत है। सर्वतोभावेन शांत है। अप्रिय संवेदन के प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं है। यह है राग-द्वेष को कम करने का प्रयोग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy