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________________ आत्म-तुला की चेतना का विकास 175 दो मित्र जंगल से गुजर रहे थे। एक के मन में दूसरे को नीचा दिखाने की बात आई। वह उसको पशुवत् बनाना चाहता था। दूर एक गाय रंभा रही थी। उस मित्र ने कहा—'देखो, गाय रंभा रही है। लगता है, वह तुम्हें कुछ कहना चाहती है।' इसका मतलब है कि तुम भी गाय जैसे पशु हो। वह व्यक्ति गाय के पास दौड़ा-दौड़ा गया। अपने कान गाय के मुंह के पास कर, कुछ क्षणों में लौट आया। आते ही उसने पूछा मित्र! बताओ, गाय ने तुम्हें क्या कहा? सच-सच बताना। वह बोला—'तुमने ठीक ही कहा। गाय ने मुझे सचमुच बुलाया था। गाय ने मुझसे कहा—'अरे, भोले आदमी। तुम इस गधे के साथ कैसे फंस गए ?' इतना सुनते ही वह अपमानित करने की बात सोचने वाला मित्र स्वयं अपमान का अनुभव करने लगा। आदमी में दूसरे की अवज्ञा करने, नीचा दिखाने की मनोवृत्ति होती है। यह उसकी आदत बनी हुई है। आरोपण की आदत के कारण वह ऐसा करता है। यह उसकी संस्कारगत आदत है। आदमी लड़ता है, कलह करता है, पर लड़ाई कोई मतलब से नहीं होती। बहुधा लोग यह कहते हैं देखो, ये बिना मतलब ही लड़ रहे हैं। बात सही है। लड़ने का कोई मतलब ही नहीं होता। मतलब से कोई लड़ता भी नहीं। मतलब से तो आदमी अपना काम करेगा, लड़ेगा नहीं। सारी लड़ाई बिना मतलब के होती है। मतलब होता तो लड़ाई नहीं होती। दुनिया में कभी भी बड़ी बात को लेकर लड़ाई नहीं हुई। लड़ाई मात्र बहानेबाजी से होती है। महायुद्ध भी बहाने के आधार पर होता है। किसी पर आक्रमण करना होता है तो पहले बहाना खोजा जाता है। आक्रमण की पहल करने वाला राष्ट्र कहेगा अमुक राष्ट्र हम पर आक्रमण करना चाहता है। इसलिए हमको मजबूर होकर आक्रमण करना पड़ रहा है। आक्रान्ता कभी नहीं कहेगा कि मैंने आक्रमण किया है, क्योंकि उसने पहले से ही बहाना खोज निकाला है। लड़ना एक आदत है, वृत्ति है। इसका परिमार्जन तब तक नहीं होता जब तक अचेतन मन का परिष्कार नहीं किया जाता। अचेतन मन का परिष्कार तब तक नहीं होता जब तक प्रिय और अप्रिय संवेदन से छुटकारा न मिल जाए। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इन्द्रियों के स्तर पर जीवन चलाने वालों में ये सब आदतें बनी की बनी रहेंगी। इनके आधार पर आदमी नाचता रहेगा। इनसे छुटकारा पाने के लिए है प्रिय-अप्रिय संवेदनों से मुक्ति और प्रिय-अप्रिय संवेदनों की मुक्ति के लिए इन्द्रियों पर नियंत्रण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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