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२४. आत्म-तुला की चेतना का विकास
सतही चेतना के स्तर पर बुराई को मिटाया नहीं जा सकता और व्यक्तित्व का रूपान्तरण नहीं किया जा सकता। उसके लिए काफी गहरे में जाना जरूरी होता है। अभ्यास के बिना गहराई में जाया नहीं जा सकता। इसलिए ध्यान का बार-बार अभ्यास करना होता है, अपने भीतर बार-बार देखना होता है, जिससे कि बहुत गहरे में जाया जा सके। हमारी चेतना पर अत्यन्त गहरी और सूक्ष्म परतें हैं, उनको भेदकर उन ग्रन्थियों को खोलकर और आगे बढ़ सके, चेतन मन से अचेतन मन तक पहुंच सके। आदत को बदलने के लिए चेतन मन में अचेतन मन की यात्रा आवश्यक है। यह चेतना का दूसरा सोपान है। वहां पहुंचने पर एक नई दुनिया का अनुभव होता है। एक आदमी हिंसा करता है, पर निरन्तर नहीं करता। कोई भी आदमी निरन्तर हिंसा नहीं करता। एक आदमी झूठ बोलता है, पर निरन्तर झूठ नहीं बोलता। कोई भी आदमी निरन्तर चोरी नहीं करता। जब भीतर की आदत व अचेतन मन का प्रभाव चेतन मन के स्तर पर आता है और उसे उद्दीपन मिलता है, बाहरी कारण मिलता है तब आदमी हिंसा करता है। क्रोध आदमी को आता है, पर निरन्तर नहीं आता। किसी ने गाली दी, किसी ने कड़वी बात कही, उद्दीपन मिला। क्रोध आया, लेकिन क्रोध का मूल कारण बहुत गहरा है। एक है चेतना मन का स्तर। एक है आदतों का स्तर जो अचेतन मन का स्तर है, उसके पीछे है हमारी मौलिक मनोवृत्ति। मनोविज्ञान ने अनेक मौलिक मनोवृत्तियां मानी हैं किन्तु जैन दर्शन की दृष्टि से
राग और द्वेष ये दो ही मौलिक मनोवृत्तियां हैं। इनके द्वारा हमारी आदतों का निर्माण होता है। इनके बनने के पीछे जो मूल कारण है, वह है राग और द्वेष । ये विभिन्न प्रकार की आदतों का निर्माण करते हैं।
हिंसा और परिग्रह ये आदतें हैं, मौलिक मनोवृत्तियां नहीं। हिंसा भी एक आदत है। परिग्रह भी एक आदत है। हिंसा पर अभी-अभी बहुत काम हो रहा है। कुछ समय पहले यूनेस्को में विश्व के बीस वैज्ञानिक इकट्ठे हुए। उन्होंने विभिन्न विज्ञान की शाखाओं के आधार पर हिंसा के बारे में एक सामूहिक वक्तव्य दिया। उनका कहना था—'यह माना जाता है कि मनुष्य का एक मस्तिष्क हिंसात्मक होता है, किन्तु यह बात सही नहीं है। हमारे शरीर में
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