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चैतन्य-विकास के सोपान
171 है वहां सारा उजला ही उजला होता है, श्वेत होता है। अब तुम निश्चिन्त हो गए। अब तुम्हें बीमारी और अमीरी की चिन्ता, करना आवश्यक नहीं है। ___ मानवीय संबंधों में समस्या तब आती है, जब अनैतिकता बरती जाती है। यह मानवता की समस्या है। इन दोनों समस्याओं संबंधों की समस्या और नैतिकता की समस्या का समाधन तब तक नहीं खोजा जा सकता जब तक चैतन्य का विकास सम्यग् नहीं हो जाता। सामाजिक विषमता की समस्या को मिटाने का भी यही सूत्र है।
अणु-अस्त्रों की समस्या आज अत्यन्त भीषण रूप से सामने आ रही है। सभी राष्ट्र इससे आतंकित हैं। राष्ट्र छोटा हो या बड़ा, समृद्ध हो या गरीब सभी का मन इस विभीषिका से ग्रस्त है। अस्त्र कहां पैदा होते हैं। युद्ध लड़ा जाता है समरांगण में और अस्त्र बनाए जाते हैं कारखानों में। किन्तु उससे पहले युद्ध जन्म लेता है मनुष्य के मस्तिष्क में और शस्त्रों का निर्माण भी होता है मनुष्य के मस्तिष्क में।
भगवान् महावीर ने दस प्रकार के शस्त्र बतलाए हैं। उनमें से एक महत्वपूर्ण शस्त्र है—भावशस्त्र। इसका अर्थ है मनुष्य का मस्तिष्कीय शस्त्र। तलवार, तोप, पिस्तोल, बम, टेन्क आदि बाह्य शस्त्र हैं। ये द्रव्य शस्त्र कहलाते हैं। मस्तिष्क में उत्पन्न होनेवाला शस्त्र भाव शस्त्र कहलाता है। भाव शस्त्र का स्थान पहला है और द्रव्य शस्त्र का दूसरा। भाव शस्त्र प्रधान है, द्रव्य शस्त्र गौण। यदि भाव शस्त्र नहीं है तो द्रव्य शस्त्र का निर्माण नहीं हो सकता। अशांति कहां पैदा होती है ? तनाव कहां पैदा होता है ? ये सब पहले मस्तिष्क में उत्पन्न होते हैं। भाव शस्त्र या भाव का स्थान है मस्तिष्क।।
सारी समस्याओं को यदि हम समेटें तो इस बिन्दु पर पहुंच जाते हैं कि बाहरी जगत् में प्रतीत होने वाली समस्याओं का मूल मस्तिष्क में विद्यमान है। सारा उत्पादन और संचालन मस्तिष्क में हो रहा है। मस्तिष्क ही संचालन करता है और मस्तिष्क ही नियमन करता है। इस दृष्टि से समस्याओं का समाधान मानव मस्तिष्क में है। समस्याओं का जन्म और समस्याओं की मृत्यु या समस्याओं का समाधान मानव मस्तिष्क में है।
इस सारी चर्चा का निष्कर्ष यही है कि जब तक मस्तिष्क प्रशिक्षित या परिष्कृत नहीं होता, जब तक चेतना विकसित नहीं होती, तब तक समस्याओं का क्षणिक समाधान भले ही हो जाए, उनका स्थायी समाधान नहीं हो सकता। चैतन्य-विकास का एक क्रम है। उसे पांच भागों में या चौदह भागों में विभक्त किया गया है। जैन आचार्यों ने चैतन्य-विकास के चौदह भागों को गुणस्थान के
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