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________________ 170 तैयार रहता है 1 मित्र बोला- 'भैया ! राजहंस के दर्शन प्रातः चार बजे होते हैं। वह कहां मिले यह भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । वह एक स्थान से प्रतिबद्ध नहीं है । तुम चार बजे उठो | अपने खेतों, खलिहानों, गोशाला आदि में घूमते हुए दूर जंगल में चले जाओ। कहीं न कहीं राजहंस अवश्य मिलेगा । जिस दिन तुम उसके दर्शन कर लोगे, उस दिन तुम समझ लेना कि अमीरी और स्वास्थ्य का रहस्य तुम्हें ज्ञात हो गया है । फिर तुम्हारी अमीरी और स्वास्थ्य तुमसे कोई नहीं छीन सकेगा ।' किसान का मन प्रसन्नता से भर गया । वह बोला— कल से ही मैं राजहंस के दर्शन के प्रयत्न में लग जाऊंगा । किसान चार बजे उठा। सीधा अपनी गोशाला में गया। देखा । नौकर गायों- भैसों को दुह रहे हैं और दूध पार कर रहे हैं। उसने अपनी आंखों से देखा । सोचा, यदि यही क्रम रहा तो मैं मारा जाऊंगा । मित्र ने जो कहा, वह सच है । दूसरे दिन खलिहान में गया। एक ओर छिप कर बैठ गया। देखता है, उसके नौकर अनाज से बोरियां भर-भर कर पा कर रहे हैं । उसकी आंखें खुली की खुली रह गई। जिसकी वह कल्पना भी नहीं करता था । वह अपनी आंखों से देखकर स्तब्ध रह गया । सोचा, क्या सगे-संबंधी इस प्रकार धोखा दे सकते हैं? सोया मन जग जाए तीसरे दिन प्रात: खेत की ओर गया। देखा, सूरज ऊपर आ चुका है पर काम करने वाले सभी जन खर्राटें भर रहे हैं । खेत में गाएं, भैंसे, बकरियां अनाज चर रही है। कोई उनको रोकने वाला नहीं है । उसे सारी चीज समझ में आ गई। सात दिन तक यह क्रम चला। वह सर्वत्र जाता, देखता । दो सप्ताह बीत गए । मित्र पुनः उससे मिलने आया । उसने पूछा—- भैया ! राजहंस के दर्शन हुए या नहीं ? किसान बोला — — मित्रवर ! राजहंस के दर्शन तो नहीं हुए, पर कौए को अवश्य मैंने देखा है । सर्वत्र कौए ही कौए हैं। राजहंस एक भी नहीं है। सारे बेईमान हैं। मुझे पता ही नहीं था कि मेरे यहां इतनी बेईमानी होती है । तुमने मेरी आंखें खोल दी । मित्र बोला – तुमको भले ही राजहंस न दिखा हो, पर स्वास्थ्य और अमीरी का सूत्र तुम्हारे हाथ लग गया। तुम जिसे कौए का दर्शन मान रहे हो, वह वस्तुतः कौए का दर्शन नहीं, राजहंस का दर्शन ही है। तुम पहचान नहीं सके । तुमने घूमने और रखवाली करने का जो श्रम प्रारम्भ किया है, यही श्रम है राजहंस का दर्शन | राजहंस श्वेत होता है। जहां यह श्रम होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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