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________________ चैतन्य-विकास के सोपान 167 चालू है। न्यायाधीश निरुत्तर हो गया। उसके पास 'हां' या 'ना' कहने को कुछ बचा ही नहीं था। केवल 'हां' या 'नां' में पूरी बात कही भी जा सकती है और नहीं भी कही जा सकती। विश्लेषण और विभाजन करना होता है। अध्यात्म या धर्म के द्वारा सारी समस्याओं का समाधान हो सकता है या नहीं, इसका उत्तर 'हां' या 'नां' में नहीं दिया जा सकता। विभज्यवाद के सहारे ही इसका प्रतिपादन किया जा सकता है। मनुष्य के मस्तिष्क को जागृत किया जाए, चैतन्य का विकास किया जाए तो अनेक समस्याओं को सुलझाने की पृष्ठभूमी तैयार हो जाती है। इससे समस्या को सुलझाने में सहयोग मिलता है। यदि मस्तिष्क को प्रशिक्षित या जागृत नहीं किया जाता है तो हर समस्या उलझ जाती है। छोटी समस्या भी बड़ी बन जाती है। जिसका मस्तिष्क प्रशिक्षित है, सुलझा हुआ है, वह बड़ी से बड़ी समस्या को शीघ्र सुलझा देता है, अन्यथा राई भी पहाड़ बन जाती है। पारिवारिक जीवन में ऐसा बहुधा होता है। छोटी-सी बात भयंकर रूप धारण कर लेती है। घटना कोई बड़ी नहीं होती। उसको छोटा या बड़ा बनाने वाला है मानव का मस्तिष्क। हम इस सचाई को पकड़ें कि समस्या को समाहित करने के लिए या उसे सुलझाने के लिए मानवीय मस्तिष्क को सुलझाना होगा। उसके सुलझने पर सारी समस्याएं सुलझ जाती हैं और उसके उलझने पर सारी समस्याएं उलझ जाती हैं। इस बिन्दु पर अध्यात्म और चैतन्य का मूल्य समझ में आ जाता है। मानवीय समस्याओं का वर्गीकरण हम इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं १. मानवीय संबंधों की समस्या। २. नैतिकता की समस्या। ३. सामाजिक विषमता की समस्या। ४. अणु-अस्त्रों की समस्या। ५. अशांति और तनाव की समस्या। सबसे पहली समस्या है मानवीय संबंधों की समस्या। सामाजिक जीवन संबंधों का जीवन है। बच्चा जन्मता है। माता-पिता का संबंध होता है। यह माता है, यह पिता है, यह भाई है, यह बहिन है, यह चाचा है, यह नाना है। संबंधों का विस्तार आगे से आगे होता चला जाता है। कोई पत्नी बनती है। कोई पति होता है। कोई मालिक होता है। कोई नौकर होता है। पूरे समाज में संबंधों का ताना-बाना बुना होता है। एक व्यक्ति के साथ अनेक संबंध जुड़े होते हैं। संबंध, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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