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सोया मन जग जाए
पाता इसलिए बाधाओं का पार नहीं पा सकता । शिविरार्थी शिविर संपन्न कर घर जाते हैं। पांच-दस दिन प्रयोग भी करते रहते हैं, समय भी लगाते हैं, किन्तु जैसे-जैसे यहां का वातावरण मन की आंखों से ओझल होता जाता है और घर-परिवार का वातावरण प्रभाव डालता है तब कभी आलस्य, कभी स्थितियों के कारण वे साधना में शिथिलता ला देते हैं और मास- दो मास के बाद साधना छूट - सी जाती है। इससे कोई बड़ा लाभ नहीं मिलता और आत्मा को मित्र बनाने की कला भी हाथ से छूट जाती है । यह कला स्थायी तभी बन सकती है जब प्रमाद और आलस्य न आए, आस्था में कोई छेद न हो और संकल्प की दृढ़ता बनी रहे, अभ्यास परिपक्व होता जाए । संकल्प की दृढ़ता आदर्श का अभ्यास करने में मदद करती है । रोटी खाऊं या नहीं, पर दीर्घश्वास और कायोत्सर्ग का अभ्यास जरूर चालू रखूंगा। एक वक्त की रोटी छोड़ दूंगा पर ये क्रियाएं नहीं छोडूंगा । यदि यह निश्चय होता है तो माना जा सकता है कि आत्मा को मित्र बनाने की ओर प्रस्थित है, मार्ग मिल चुका है। फिर आदतें बदलनी प्रारम्भ होंगी, आस्था के अंकुर फूटने लगेंगे और अभ्यास का विटपी शतशाखी होता जाएगा।
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आदमी इस बात पर ध्यान दे कि यह जीवन छोटा है, बहुत लम्बा नहीं है। हजारों-लाखों वर्षों का नहीं, मात्र सौ वर्ष का। इसको सफल बनाकर हम इसका आनन्द लूटें, यह अपेक्षित है। आनन्दमय जीवन जीना हमारे हाथ में है । हम चाहें तो जीवन में आनन्द भर सकते हैं और चाहें तो उसे विषाद से भर सकते हैं I
जीवन के प्रति एकाग्रता और समर्पण जब पनपता है तब कुछ भी शेष नहीं रहता। एकाग्रता सफलता का महान् सूत्र है, आनन्द का स्रोत है ।
एक जर्मन इंजीनियर भारत सरकार की नौकरी पर आया । उसका कमरा वातानुकूलित नहीं था । वह काम करता। आठ घंटा श्रमपूर्ण काम करता । पसीना चूता रहता। पंखा था कमरे में पर वह इसलिए उसका उपयोग नहीं करता कि हवा से पन्ने इधर-इधर उड़ने से ध्यान विचलित हो जाता है । उसका मासिक वेतन था एक लाख रुपया । हमारे ही एक उपासक अधिकारी ने यह बात बताते हुए कहा – महाराज ! उस अकेले व्यक्ति ने जो काम किया वह काम भारत के आठ-दस अधिकारी भी नहीं कर पाते ।
यह सफलता है एकाग्रता की, तन्मयता की, कार्य के प्रति समर्पित भावना की । ये सारे ध्यान के ही परिणाम हैं। उसके परिवार के ही सदस्य हैं। आदमी में
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