________________
अपनी आत्मा अपना मित्र : कब-कैसे ?
161
चंचलता है, इसलिए वह न एकाग्र हो पाता है और न कार्य के प्रति समर्पित । हम ध्यान को मोक्ष के साथ जोड़ें या न जोड़ें, अध्यात्म के साथ जोड़ें या न जोड़ें, व्यवहार के धरातल पर इनता तो अवश्य ही समझ लें कि ध्यान से एकाग्रता बढ़ती है और कार्य में सफल होने का रहस्य हाथ लग जाता है ।
मैं बहुत कम लिखता हूं, पर जब लिखता हूं तब - दुनिया का ध्यान नहीं रहता। पास में कौन बैठे हैं, कौन बातें कर रहे हैं, क्या-क्या हो रहा है आसपास में, मैं नहीं देखता। मुझे ज्ञात ही नहीं होता । लिखने के अतिरिक्त कुछ भी सामने नहीं रहता। यह स्थिति मुझे संतोष देती है । लोग पूछते हैं, आप इतनी सारी प्रवृत्तियों में संलग्न रहते हैं, फिर लिखते कब हैं? मैं कहता हूं-कहां लिखता हूं । हो जाता है लिखना । कोई करा देता है और कराने वाले दो तत्त्व हैं— एकाग्रता और तन्मयता । तन्मयता होने से कार्य अपने आप होता है । तन्मयता, एकाग्रता और समर्पण के बिना कार्य भार बन जाता है और तब एक घंटा का काम दस घंटे में भी नहीं हो पाता । शक्ति और समय का अपव्यय ।
ध्यान पारलौकिक प्रयोग नहीं है, वार्तमानिक प्रयोग है । परलोक दूर है 1 वर्तमान को हम जी रहे हैं । इसके प्रति आकर्षण अधिक हो, यह अपेक्षित है ।
निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि सफलता का अर्थ है, अपने आपका मित्र होना और सफलता का सूत्र है लक्ष्य के प्रति समर्पित होना । अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित होने का सूत्र है अभ्यास और अभ्यास को दृढ़बद्ध करने का सूत्र है
ध्यान ।
ध्यान से हम जानेंगे, फिर बोध होगा, अभ्यास होगा। उसके बाद एकाग्रता सधेगी और तब चंचलता मिटेगी । ध्यान से चंचलता मिटती है । चंचलता दुःख है। आदमी घटना से दुःख नहीं भोगता, चंचलता से दुःख भोगता है । घटना घटी। व्यक्ति नींद में है। उसे कोई दुःख नहीं होगा । आदमी मूर्च्छा में आ गया। कहां भोगता है वह दु:ख ? दुःख भोगा जाता है चंचल अवस्था में। जितनी चंचलता उतना ही दुःख । कम चंचलता, कम दुःख । अधिक चंचलता, अधिक दुःख । दुःखद घटना घटित हुई । आदमी भक्ति में लग गया, उपासना में लग गया । एकाग्रता हुई । दुःख की अनुभूति क्षीण हो गई । एकाग्रता दुःख - मुक्ति का उपाय है।
हम इन सभी तथ्यों का अभ्यास करें। स्वयं को, अपनी वृत्तियों और कर्म - संस्कारों और कर्म विपाकों को देखने का अभ्यास करें तो सही अर्थ में हम अपनी आत्मा को मित्र बना सकेंगे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org