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________________ अपनी आत्मा अपना मित्र : कब-कैसे ? 159 करता है, निवृत्तिमय जीवन बिताता है तो अनेक संकटों से बचने का यह अच्छा मार्ग है। अन्यथा कभी-कभी भयंकर स्थितियों का सामना करना पड़ता है। यह अपनी आत्मा को अपना मित्र बनाने का महत्वपूर्ण फार्मूला है कि जब यह लगे कि अब समय ठीक नहीं चल रहा है, विचार बुरे आ रहे हैं, समस्याएं उलझती जा रही हैं, उस समय स्वयं को जितना अलग रख सके, निवृत्ति में स्थापित कर सके, उतना ही अच्छा है। उस समय केवल अपने मित्र आत्मा के साथ रहना ही श्रेयस्कर है। यह अलगाव बहुत काम का होता है, बहुत समाधान देने वाला होता है। यह एक प्रयोग है। इसे हम प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन कह सकते हैं। व्यक्ति में यह विवेक जागृत होना चाहिए कब वह प्रवृत्ति करे और कब निवृत्ति करे, यह विवेक अपेक्षित है। उचित समय में की गई प्रवृत्ति बहुत लाभप्रद होती है और वही प्रवृत्ति यदि बिना अवसर के की जाती है तो स्थिति उलझ जाती है। ___भारतीय अध्यात्म के चिंतकों का कालबोध बहुत विशद था। इसी से स्वरोदय का जन्म हुआ। स्वरोदय कालबोध का ही वाचक है। ज्योतिष का ज्ञान इससे संबंधित है। जैविक घड़ी का ज्ञान भिन्न प्रकार का था कि कौन-सी घड़ी में कौन-सा कार्य सुफलदायी होता है। स्वाध्याय और ध्यान कब करना चाहिए? शासक और आचार्य से कब मिलना चाहिए? कब बातचीत करनी चाहिए ? मुंह किस दिशा में होना चाहिए? उनके किस पार्श्व में बैठना चाहिए? दाएं या बाएं बैठना चाहिए—इन सारी बातों का बहुत सूक्ष्म ज्ञान था। ये सारी बातें इसलिए देखी जाती थीं ताकि कर्म विपाक को बदला जा सके। दूसरे शब्दों में ये सारे प्रवृत्ति और निवृत्ति के संतुलन-सूत्र हैं। यह पांचवां सूत्र है। __ अपनी आत्मा को अपना मित्र बनाने के पांच सम्यग्दर्शन या दृष्टि-सूत्र प्रस्तुत किए। इनका ज्ञान और अभ्यास निरंतर चलता रहे तो आत्मा को मित्र बनाया जा सकता है। यदि इनसे विपरीत चले तो आत्मा को शत्रु बनाया जा सकता है। अभ्यास से ही आत्मा के साथ मित्रता स्थापित हो सकती है, अन्यथा कोरी रटना या सिद्धान्त को दोहराते रहने से कुछ नहीं बनेगा। 'अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिओ सुपट्टिओ'—यह सिद्धांत-बोध रहेगा, पर जीवन पर्यन्त आत्मा मित्र नहीं बन पाएगी। प्रेक्षाध्यान का प्रयोग एक दृष्टि से देखने का प्रयोग है तो दूसरी दृष्टि से यह भीतर की गहराइयों में जाने का प्रयोग भी है। व्यक्ति भीतर में प्रवेश नहीं कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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