SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 158 सोया मन जग जाए कर्म का विपाक मानते हैं । वैज्ञानिक लोग रसायनों को आचरण का मूल मानते हैं। उनका कहना है, जैसा रसायन होगा वैसा ही आचरण और व्यवहार होगा । उनकी खोज शारीरिक रसायनों और पदार्थों से संबंधित है। धार्मिक व्यक्ति कर्मों के आधार पर आचरण और व्यवहार की बात कहेगा। प्रत्येक व्यक्ति कर्मों से बंध हुआ है। प्रतिक्षण कर्म उदय में आते हैं, विपाक में आते हैं । यह चक्र क्षण भर के लिए भी नहीं रुकता। निरंतर कर्म-बंध और निरंतर कर्म - विपाक । यह कर्म-विपाक हमें प्रेरित करता है कुछ करने के लिए । आदमी हिंसा में, झूठ में प्रवृत्त होता है । उस प्रवृत्ति का जिम्मेवार है कर्म का विपाक । हम यों भी कह सकते हैं, कि जैसा कर्म का विपाक वैसा ही शरीर का रसायन । जैसा रसायन वैसा ही आचरण । धर्म और विज्ञान — दोनों के कथन में संवादिता खोजी जा सकती है। हम आस्था और अभ्यास के द्वारा कर्म विपाक में परिवर्तन ला सकते हैं । जो हिंसा या असत् आचरण का विचार आने वाला है, उसे टाला जा सकता है । पहले ही ऐसी दीवार खड़ी की जा सकती है कि आने वाले को रोका जा सकता है । जब विचार - प्रेक्षा का अभ्यास गहरा होता जाता है तब विचारों की तरंगे जो उठती हैं, उनका पता लगने लग जाता है कि अब मस्तिष्क में किस प्रकार की तरंग उठने वाली है । यह अभ्यास होने लगता है । तब साधक किसी एक प्रयोग के द्वारा उस उठने वाली तरंग का आधार ही खत्म कर डालता है और तब मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस या लिंबिक सिस्टम में होने वाली प्रतिक्रिया बंद हो जाती है । निमित्त बदल जाता है। I पंडित ने एक व्यक्ति से कहा, शनी की दशा आने वाली है । वह साढ़े सात वर्ष रहेगी। सावधान रहना । व्यक्ति ने सुना । एक गुफा में जा साढ़े सात वर्ष बिता डाले। वह पंडित से मिलकर बोला- शनी ने साढ़े सात बरस तक कुछ नहीं किया। पंडित बोला, और क्या करता । तुमको एक पशु की भांति गुफा में बिठा दिया । हम इस बात को इस रूप में ग्रहण करें कि साढ़े सात बरस में जो कुछ अनिष्ट होने वाला था, वह टल गया । व्यक्ति ने इतने दीर्घ समय तक साधक का जीवन जीया, अपनी आत्मा को अपना मित्र बनाकर जीया, शनी कुछ भी नहीं कर सका । जब-जब लगे कि ग्रह की कठोर दशा है तब-तब यदि व्यक्ति उस ग्रहकाल तक स्वयं को जप, ध्यान आदि धार्मिक क्रियाओं में लगाए रखता है, एकान्तवास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy