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________________ अपनी आत्मा अपना मित्र : कब-कैसे ? 157 कर सकता। अनुभवहीन बात भटकाती है, पहुंचाती नहीं। अपनी आत्मा अपना मित्र तभी बन सकती है। जब यह बात अनुभव में उत्तर जाए। अनुभव अभ्यास के बिना नहीं बनता। अभ्यास महत्वपूर्ण तत्त्व है। कृष्ण से पूछा गया कि मन का नियंत्रण कैसे हो सकता है? उत्तर मिला, अभ्यास के द्वारा मन पर नियंत्रण किया जा सकता है। पतंजलि ने भी यही कहा कि अभ्यास और वैराग्य के द्वारा मन का निरोध घटित हो सकता है। महावीर ने कहा-चरित्र के बिना सब अधूरा है। चरित्र है अभ्यास की प्रक्रिया। अभ्यास के द्वारा ही अनुभूति के स्तर पर पहुंचा जा सकता है। अभ्यास करने से पहले कुछ एक धारणाओं को स्पष्ट करना आवश्यक होता है। धारणाओं के स्पष्ट होने पर अभ्यास करने में सुविधा होती है। अपनी आत्मा को अपना मित्र बनाने के चार सम्यग्दर्शन हैं— १. सुविधावादी दृष्टिकोण का परित्याग। २. कोई दूसरा व्यक्ति सुख-दु:ख नहीं दे सकता—इस आस्था का निर्माण। ३. आवश्यकता और आसक्ति की भेदरेखा का बोध । ४. आदत को बदला जा सकता है इस श्रद्धा का निर्माण। इन चार सम्यग्दर्शनों के अंजन से जब आंखें आंजी जाती हैं, तब उनमें आलोक उभर आता है। कुछ व्यक्ति संघ बनाकर यात्रा कर रहे थे। एक जंगल में विश्राम के लिए पड़ाव डाला। वहां डाकूओं का आतंक था। संघ के समाचार सुनकर डाकू आ धमके। सबके पास से धन लूट लिया। एक लड़का पुस्तक पढ़ रहा था। वह अभय था। एक डाकू उसके पास गया, बोला, जो कुछ है दे दो। लड़के ने अपने पास जो पचास मोहरें थीं, वे दे दी। डाकू ने चाकू दिखाते हुए कहा- और कुछ? लड़का बोला और भी है, पर वह तुम्हें नहीं दूंगा। तुम्हारे सरदार को भेजो। सरदार आया। लड़के न कहा—यह पुस्तक मेरा धन है। सरदार बोला-इसे मुझे दे दो। लड़का बोला-ऐसे ही नहीं दूंगा। पहले सुनाऊंगा, फिर दूंगा। लड़के ने डाकू के सरदार को पुस्तक का एक पन्ना इतने मार्मिक ढंग से सुनाया कि सरदार हतप्रभ रह गया। उसमें लिखा था- दूसरों को उत्पीड़ित करने वाला समाज के लिए किस प्रकार कंटक बनता है और उसकी अन्ततोगत्वा क्या गति होती है। सरदार की आंखें खुल गई और उसने लूटपाट का सारा सामान उनके मालिकों को लौटा दिया। हमारा यह सम्यग्दर्शन जागे कि आदमी बदल सकता है। बदलने के अनेक कोण हैं, माध्यम हैं। जो कर्म पर विश्वास करते हैं। वे कर्मवादी आचरण का मूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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