SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२. अपनी आत्मा अपना मित्र: कब-कैसे? अपनी आत्मा अपना मित्र, अपनी आत्मा अपना शत्रु यह सिद्धान्त हमने सुना है, पढ़ा है और जाना है। पर सोचना है कि हमारा अनुभव क्या है? क्या सही है कि अपनी आत्मा अपना मित्र है, अपनी आत्मा अपना शत्रु है? अनुभव और सिद्धान्त में दूरी है तब कुछ नहीं होता। सुनी-सुनाई बात और अनुभव एक हो जाए तब सत्य की कसौटी होती है। दूरी मिट जाती है। जब तक यह दूरी बनी रहती है तब तक जीवन भर हम सिद्धान्त को सुनते चले जाते हैं, न सिद्धान्त हमारे पास आता है और न हम सिद्धान्त के समीप जाते हैं। बस, कान का काम है सुनना और मन का काम है सिद्धान्त का भार ढोना। आदमी सुनता चला जाता है, भार ढोता चला जाता है। जिसमें विवेक चेतना नहीं है, उसके लिए शास्त्र भी भार है। वह शास्त्रों से लाभ नहीं उठा पाता। गधा चंदन का बोझ ढोता है, सुगंध नहीं ले पाता। मनुष्य भी उस स्थिति में केवल भारवाही होता है। सिद्धान्त अनुभव के स्तर पर आए, तब वह लाभदायी बनता है। तभी यह कहा जा सकता है कि अपनी आत्मा ही मित्र है और अपनी आत्मा ही शत्रु है। जिन लोगों ने यह कहा, यह उनके अनुभव की वाणी थी। अनुभव करने वालों की वाणी हमारे पास है। उनके पास अनुभव था, हमारे पास केवल उनकी वाणी है। अपना अनुभव नहीं जुड़ा तो वह वाणी केवल वाणी ही बनकर रह जाएगी। एक है अनुभवी आदमी, एक है अनुभवहीन आदमी और बीच में है वह वाणी, तो कुछ होगा नहीं। इसीलिए कहा गया कि जितना जाना जाता है उतना कहा नहीं जाता और जितना कहा जाता है उतना बोधगम्य नहीं होता, समझा नहीं जाता। ___ मैं महावीर, बुद्ध राम और कृष्ण को जानता हूं। मैंने गीता पढ़ी है, योगवाशिष्ठ, त्रिपिटक और पुराण पढ़े हैं। महावीर आदि चारों महान् व्यक्तियों की वाणियां पढ़ी हैं। पढ़ लेने पर भी मैं न राम बना, न कृष्ण बना, न बुद्ध बना और न महावीर बना। बना इसलिए नहीं कि उन्होंने तपस्या और साधना कर परदे के पीछे जो था वह कहा, जो आवृत था उसे अनावृत कर कहा, जो अननुभूत था उसे अनुभूत कर कहा। मैं परदे के पीछे जो है, उसे तो जानता नहीं हूं, किन्तु परदे में से एक वाणी आ रही है, स्वर निकल रहा है, उसे सुन रहा हूं। इस प्रक्रिया में मेरे हाथ आया केवल शब्द, कोरा शब्द। शब्द की पहुंच सीमित होती है। जिस व्यक्ति ने परदे के पीछे इस सचाई का साक्षात्कार किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy