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________________ 152 सोया मन जग जाए आसक्ति कम नहीं हुई। आदमी जीवन भर धर्म की आराधना करता है, पर इस आसक्ति से छुटकारा नहीं मिलता। ऐसा लगता है कि धन या धन की आसक्ति को कम करने का धर्म से कोई संबंध है ही नहीं । धर्म है परलोक सुधारने के लिए और धन है गृहस्थी को चलाने के लिए। दोनों में क्या संबंध हो सकता है ? कोई संबंध नहीं माना गया। प्राचीनतम साहित्य में यह बार-बार कहा गया है कि जहां धन की आसक्ति है वहां न धर्म है, न तप है और न दम है, न शान्ति है और न इन्द्रिय-विजय है । ईसू क्राइस्ट ने कहा- सूई की नोक से ऊंट निकल जाता है, पर धनी आदमी स्वर्ग के द्वार में प्रवेश नहीं पा सकता । और-और भी अनेक प्रकार के उपदेश वाक्य हैं। पर आसक्ति टूटी नहीं । चक्र और अधि जटिल बनता चला जा रहा है । चक्रव्यूह जैसा बन गया है । हम निराश न हों। उपाय की खोज में लगे रहें । अवश्य ही सफलता मिलेगी। यह मानकर न बैठ जाएं कि दो-चार हजार वर्षों में जिसका उपाय नहीं खोजा गया या उपाय सफल नहीं हुआ तो क्या आज हम इस समस्या का पार पा लेंगे ? यह निराशा की ध्वनि है। हम आशा का अनुबंध लेकर आगे बढ़ें। रास्ता मिल जाएगा। रास्ता मिलेगा उसी को जिसके मन में आसक्ति को तोड़ने की प्रबल चाह जाग गई है । आचार्य ने कहा- जो भागीदार हैं वे सब ताक लगाए बैठे हैं कि कब आदमी मरे और कब हमें धन का हिस्सा मिले। चोर धन चुराने की ताक में है । राजा भी धन के अपहरण की बात सोचता है । राज्याधिकारी भी धन लूटने की ताक में हैं। आग लगती है, धन को जमीन में गाड़ कर सुरक्षित रखना चाहता है, पर कभी-कभी यक्ष उसका हरण कर लेते हैं। आदमी अचानक मर जाता है और धन जमीन में गड़ा का गड़ा रह जाता है। करोड़ों का संचय करता है और उसकी आचरणहीन संतान उस संचित धन को थोड़े समय में ही बरबाद कर डालती है । आदमी इन सब सचाइयों को जानता है फिर भी धन की आसक्ति से मुक्त नहीं हो पाता । हम इस को तोड़ना चाहते हैं पर अभी तक ऐसा कोई बिन्दु प्राप्त नहीं हो सका जिस पर ध्यान करने से आसक्ति पर सीधा प्रहार हो सके । अन्यान्य उपायों के निराकरण के लिए अनेक बिन्दु खोज लिए गए, पर इसका कोई अस्पष्ट बिन्दु अभी तक ज्ञात नहीं हो सका। यह खोज का विषय है । आज नहीं तो कल यह बिन्दु अवश्य ही प्राप्त होगा । शरीर का ऐसा एक भी भाग नहीं है जहां परिवर्तन का बिन्दु न हो । हठयोग ने शरीर में हजारों बिन्दु माने हैं, जो परिवर्तन के घटक हैं। पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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