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________________ 151 क्या धन की आसक्ति छूट सकती है? धन की आसक्ति मनुष्य की सभी आसक्तियों में प्रबलतम आसक्ति है। आदमी के लिए धन जितना प्रिय है उतना दूसरा कुछ भी नहीं है। भाई-भाई को प्रिय होता है, पर तब तक ही जब तक कि धन का प्रश्न बीच में न आए। पति को पत्नी और पत्नी को पति सबसे अधिक प्रिय है। पर जब धन का प्रश्न उठता है तब पति पत्नी से और पत्नी पति से अलग हो जाते हैं। धन का प्रश्न आते ही चूल्हे दो, घर दो, दरवाजे दो और सब कुछ दो हो जाते हैं। इन सारे संदर्भो से यही फलित निकलता है कि संसार में सबसे अधिक प्रिय है धन, संपदा, संपत्ति। शेष सारे संबंध इसके समक्ष फीके हैं, व्यर्थ हैं। एक प्रश्न उभरता है कि क्या जीवन निर्वाह के लिए धन अत्यन्त आवश्यक है, इसलिए इसके साथ इतनी प्रियता जुड़ गई या अन्य कोई कारण है? विमर्श करने पर ऐसा लगता है कि धन के प्रति आसक्ति होने का मुख्य कारण है मिथ्यादृष्टिकोण। यही आसक्ति का जनक है। धन या संपदा के प्रति एक मिथ्या धारणा बन गई कि धन से सब कुछ हो सकता है, होता है। धन सर्व-शक्तिसंपन्न देवता है, प्रभु है। यह धारणा इतनी गहरी हो गई कि धन है तो सब कुछ है, धन नहीं है तो कुछ भी नहीं है। सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयन्ति यह उक्ति इसी धारणा का प्रतिनिधित्व करती है। जिसके पास धन है, वह व्यक्ति सर्वगुणसंपन्न है। जिसके पास धन नहीं है, वह अगुणी है, फिर चाहे वह कितना ही विद्वान् क्यों न हो। राजनीति का सूत्र है, जिसके पास भरापूरा कोश है, खजाना है, वह सर्व-शक्तिसंपन्न राजा है। वह सभी कठिनाइयों का पार पा सकता है। जिसका कोश रिक्त है, वह पग-पग पर कठिनाइयों में फंसता जाता है। इन सारी बातों ने मनुष्य को यह मानने के लिए विवश किया कि धन ही परमेश्वर है। यही शक्ति है। इससे सब कुछ साधा जा सकता है। इस धारणा ने धन के प्रति आसक्ति को और अधिक गहरी कर दी। धन के प्रति असीम मोह पैदा हो गया। इतना मोह कि आदमी और कुछ छोड़ सकता है, पर धन को नहीं छोड़ सकता। यह मोह आदमी के रक्तगत हो गया, मज्जागत हो गया। एक छोटे बच्चे में भी पैसों के प्रति अजीब आसक्ति देखी जाती है। इस आसक्ति के संस्कार, वह पूर्वजन्म से लेकर आता है। निमित्तों से वे संस्कार उभरते हैं और धन की आसक्ति बढ़ती चली जाती है। धन की आसक्ति को न्यून करने के लिए संत-साहित्य में धन को दुर्गति की खान, लोभ को पाप का बाप आदि-आदि कहा गया। पर आदमी में धन की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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