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________________ क्या धन की आसक्ति छूट सकती है ? 149 सोने की आवश्यकता होती है तो वहां नींद भी नहीं आती। आवश्यकता और प्रियता में बहुत निटकता है। तीसरी बात है, प्रियाजनित आसक्ति । प्रियता आसक्ति पैदा करती है । पानी यत्र-तत्र नहीं ठहरता । पत्थर या रेत पर पानी नहीं ठहरता । पत्थर पर पानी बह जाता है और रेत पानी को शोष लेती है। पानी वहां ठहरता है जहां नीचे कीचड़ हो। पंकीले स्थान में पानी ठहरता है। कोरी भूमि पर पानी नहीं ठहरता। आसक्ति को भी प्रियता का पंक चाहिए। जहां प्रियता होती है वहां आसक्ति जमा होती जाती है । पहले पैदा हुई आवश्यकता, उससे जन्मी प्रियता और उससे उत्पन्न हुई आसक्ति । अब ऐसा प्रतीत होता है कि समाज में धन आवश्यक नहीं, आसक्ति बना हुआ है। इसी प्रकार व्यक्ति में वह आसक्ति बन गया है। आवश्यकता को तोड़ने का प्रश्न नहीं है । प्रश्न है आसक्ति को तोड़ने का । एक ओर ध्यान है, एक ओर धन है और बीच में है आसक्ति का धागा । ध्यान के सामने धन और आवश्यकता को मिटाने की बात नहीं है, उसके सामने है आसक्ति को मिटाने की बात । मेरा अनुभव है कि विश्व में ध्यान के अतिरिक्त ऐसी कोई दूसरी शक्ति नहीं है जो धन की आसक्ति को तोड़ सके । आवश्यकता को रोका जा सकता है । अनेक शक्तियां हैं। पर आसक्ति को रोक सके, तोड़ सके, ऐसी कोई ताकत नहीं है । अध्यात्म का दृष्टिकोण, धर्म की अराधना या ध्यान —ये ही धन की आसक्ति का उच्छेद कर सकते हैं । पर शर्त यह है कि जो आसक्ति से वास्तव में छूटना चाहे वही छूट सकता है, दूसरा नहीं । T तीन चीजें हैं दंड, कानून और धर्म । हमें तीनों की प्रकृति को समझना है। दंड और कानून के सामने चाहने और न चाहने का प्रश्न नहीं होता । कोई चाहे या न चाहे, वह उसकी गिरफ्त में आ जाता है। वहां बाध्यता है। धर्म की प्रकृति इनसे भिन्न है। कोई चाहे तो बदल सकता है और न चाहे तो नहीं बदल सकता । धर्म की अपार शक्ति है। कोई उसे काम में लेना चाहे तो वह काम करती रहती है । कोई काम में लेना न चाहे तो वह अपने आप में स्थित है । चाह पैदा हो। चाह पैदा हो जाने पर व्यक्ति धर्म और ध्यान को साधन बना कर रूपान्तरण घटित कर सकता है। ध्यान या धर्म से जबरन किसी को नहीं बदला जा सकता । आसक्ति के चक्र को तोड़ने की पहली शर्त है कि व्यक्ति में आसक्ति से मुक्त होने की भावना जागनी चाहिए। दूसरी बात है, फिर उसे तोड़ने का उपाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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