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________________ आसक्ति अनासक्ति का आधार निवृत्तिवाद 145 शक्ति को प्रस्फुटित करना है । जितना श्वास का मूल्य है उतना ही अ- श्वास का मूल्य है, उससे अधिक मूल्य है। आसन करते हैं। आसन का अर्थ है सक्रियता । किन्तु जिस आसन के साथ निवृत्ति जुड़ी हुई नहीं है वह आसन आच्छा नहीं होता । अत्यन्त सूक्ष्म क्षण है निवृत्ति का । सर्वांगासन करते हैं । यदि उसमें स्थिरता नहीं है, तो वह आसन पूर्ण नहीं होगा । सर्वांगासन किया । करने के पश्चात् बिल्कुल स्थिर, कोई हलन-चलन् नहीं, जैसे कोई प्रतिमा खड़ी हो । प्रत्येक आसन के साथ निवृत्ति जोड़ने से ही वह फलदायक होता है । प्रवृत्ति के पीछे-पीछे नहीं, साथ-साथ निवृत्ति चलेगी तो क्रिया अच्छी होगी। चलते-चलते भी कायोत्सर्ग हो सकता है । यह असंभव नहीं है । इधर तो चल रहे हैं, उधर शरीर को शिथिल करने की क्रिया भी चालू है । यह साधना जब परिपक्व हो जाती है तब साधक आनन्द से आप्लावित हो जाता है। आदमी सरसों के ढेर पर नाचता है, पर एक भी दाना इधर से उधर नहीं होता । आदमी पानी से भरी दस-बीस गिलासें माथे पर रखकर बिना हाथ का सहारा दिए, नाच रहा है । ऊपर चढ़ रहा है, नीचे उतर रहा है। पानी की एक बूंद भी नहीं गिर रही है। ये सारी असंभव बातें नहीं, संभव बातें हैं । यह प्रवृत्ति निवृत्ति की साधना है। श्वास और प्रश्वास के बीच जो अ- श्वास का क्षण है, वह महत्वपूर्ण है। उसकी साधना करनी है। उसे पकड़ना है। उसे देखना है । यह है प्रवृत्ति में निवृत्ति । हृदय एक सेकेंड धड़कता है तो दो सेकेंड़ विश्राम कर्ता है । प्रवृत्ति से दुगुनी निवृत्ति | यह है उसकी कार्य-प्रणाली । यह है प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति । जिस प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति जुड़ी हुई होती है वह अनासक्त प्रवृत्ति होती है, अनासक्त कर्म होता है । इससे अधिक संग्रह नहीं करूंगा । खाऊंगा तो इतनी मात्रा से अधिक नहीं खाऊंगा। बोलूंगा तो इससे अधिक नहीं बोलूंगा । सोचूंगा तो इतने समय से ज्यादा नहीं सोचूंगा — हर प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति जोड़ दें । अनासक्ति की साधना स्वतः होती रहेगी। जो केवल अनासक्ति की चर्चा करते हैं, पर प्रवृत्ति का सीमाकरण नहीं करते, निवृत्ति की बात नहीं जोड़ते, वे और अधिक आसक्ति में फंस जाते हैं । एक व्यक्ति ने कहा संपदा का अत्यधिक विस्तार अनासक्ति का कारण बन सकता है । पर अनुभव ऐसा नहीं कहता। जिन-जिन लोगों ने संपदा का विस्तार किया है, वे आसक्ति में फंसे हैं और जीवन भर अनासक्ति का सपना लेते रहे, पर अनासक्त बन नहीं पाए। केवल मृत्यु के क्षणों में जब उन्हें इस सचाई का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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