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२०. आसक्ति अनासक्ति का आधार निवृत्तिवाद
जैन दर्शन निवृत्ति प्रधान दर्शन है। सांख्य दर्शन भी निवृत्ति प्रधान है और वेदांत को भी निवृत्ति प्रधान कहा जा सकता है। मीमांसा आदि कुछ दर्शन प्रवृत्ति प्रधान हैं। इस प्रकार दर्शन के क्षेत्र में दो धाराएं रही हैं— प्रवर्तक धर्म की धारा और निवर्तक धर्म की धारा ।
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प्रवृत्ति जीवन के लिए अनिवार्य है । मन, वाणी और शरीर — ये तीन प्रवृत्तियों के साधन हैं। मन की प्रवृत्ति, वाणी की प्रवृत्ति और शरीर की प्रवृत्ति — इन तीनों को जीवन के रहते छोड़ा नहीं जा सकता। जब तक शरीर है तब तक प्रवृत्ति और जब तक प्रवृत्ति है तब तक शरीर । शरीर और प्रवृत्ति का संबंध है योग की साधना निवृत्ति प्रधान है। अमन होना निवृत्ति है । मौन होना निवृत्ति है और शरीर का स्थिर होना निवृत्ति है हमारे सामने प्रश्न है कि हम निवृत्ति का चुनाव करें या प्रवृत्ति का ? प्रवृत्ति को नहीं छोड़ा जा सकता तो निवृत्ति को भी नहीं छोड़ा जा सकता । समस्या आसक्ति की है तो समस्या अनासक्ति की भी है । आवश्यकता बचे, आसक्ति न बचे, इसके उपाय पर चिन्तन करते-करते हम इस बिन्दु पर पहुंच जाते हैं कि यदि अनासक्त होना है तो निवृत्ति लानी ही होगी । निवृत्ति का आधार है— अनासक्ति । उसके बिना निवृत्ति की कल्पना भी नहीं की जा सकती । निवृत्ति में से जो प्रवृत्ति निकलती है, वह है अनासक्ति । 'करो' में से 'करो' निकलेगा वह आसक्ति होगी और 'न करो' में से 'करो' निकलेगा वह अनासक्ति होगी । न करो, न बोलो, न सोचो यह अनासक्ति का आधार है । प्रश्न है कि इस 'न करो' से व्यवहार कैसे चलेगा? जीवन कैसे चलेगा? सब कुछ जडवत् हो जाएगा।
'न करना' सामान्य विधि है, उत्सर्ग मार्ग है । 'करना' विशेष विधि है, अपवाद मार्ग है । हमारी मूल प्रकृति या शुद्ध चेतना है न करना, न बोलना, न चिन्तन करना । किन्तु जब व्यक्ति व्यवहार की भूमिका में आता है, जीवन यात्रा को चलाने का प्रश्न आता है तब विशेष विधि या अपवाद मार्ग का सेवन करना पड़ता है । यदि 'न करने' में से 'करना' निकलता है तो कर्त्तव्य का विवेक होगा कि क्या करना है, कितना और कैसे करना है? यदि 'करो' में से 'करो' निकलेगा तो वहां कर्त्तव्य का विवेक नहीं होगा, कार्य की सीमा नहीं होगी ।
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