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________________ चारित्र-परिवर्तन के सूत्र 137 ___ शरीर बाहर से सुन्दर है। चमड़ी गोरी है। रंग अच्छा है। पर भीतर रक्त है, मांस है, चर्बी है, मज्जा है, हड्डियां है और नानाविध मल हैं। दुर्गन्ध है। सड़ान ही सड़ान है। ऊपर चमड़ी न हो तो भीतर का रूप बीभत्स है, डरावना है, अशुचिमय है। इससे जो निकलता है वह सारा अशुचिमय है। शरीर के संपर्क से अच्छी से अच्छी वस्तु खराब हो जाती है। ऐसा सोचना अशौच भावना है। इस चिन्तन से शरीर की आसक्ति मिटती है। रागात्मक चरित्र को बदलने का यह उपाय है। अशौच भावना शरीर को भीतर से देखने की प्रेरणा है। इस भावना का दृढ़ अभ्यास हो जाने पर शरीर की आसक्ति नहीं टिकती। रागात्मक चरित्र को बदलने का तीसरा उपाय है—श्मशान प्रतिमा। साधक श्मशान में जाता है और जलते हुए मुर्दो को देखता है और देखता है कि चिता ठंडी हुई, हवा आई, राख उड़ गई। इतस्तत: उसी व्यक्ति की हड्डियां बिखरी पड़ी हैं। खोपड़ी भूमि पर असहाय पड़ी है। साधक जा रहा था। ठोकर लगी। नीचे देखा। ठोकर खोपड़ी से लगी थी। उसने खोपड़ी अपने हाथ में ली। चारों ओर से उसे देखा। अपनी झोली में डाल उसे झोंपड़ी में ले गया। अब प्रतिदिन प्रात:काल उसे देखता है और शरीर की नश्वरता के विचार से ओतप्रोत हो जाता है। भक्तों ने पूछा-महाराज! यह क्या है ? इसे क्यों लिए घूमते हैं ? संन्यासी ने कहा यह खोपड़ी संजीवनी है। इसने मुझे जिला दिया। इसने मेरी सुषुप्ति मिटा दी, मुझे जगा दिया। ___ श्मशान-दर्शन रागात्मक प्रवृत्ति को रूपान्तरित कर विराग की भूमि प्रस्तुत करता है। चौथा उपाय है—भय। रागात्मक चरित्र वाले व्यक्ति में यदि भय न हो तो वह विकृत आचार वाला बन सकता है। भय उसे पग-पग पर उबारता है। भय दोनों प्रकार का होता है। आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में भय है परिणाम का बोध कराना, आतंक का बोध कराना। उसे स्पष्ट बताना कि जैसे किंपाक फल का उपभोग मृत्यु में परिणत होता है, वैसे ही इन्द्रिय-विषयों का उपभोग हानिकारक होता है। भोग आपातभद्र होते हैं, पर उनका परिणाम विरस ही होता है। धर्मग्रन्थों में स्त्री को राक्षसी आदि कहा गया है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण है। स्त्रियों का यह जो रौद्र चित्र है वह सारा रागात्मक चरित्र वाले व्यक्तियों के लिए है। स्त्री सबके लिए राक्षसी नहीं है। वह रागात्मक व्यक्तियों के लिए राक्षसी है। जिस व्यक्ति में देहासक्ति प्रबल होती है, उसके लिए स्त्री राक्षसी है। वह उसके शरीर-सार को चूसकर उसे हड्डियों का ढांचा मात्र बना देती है। ऐसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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