SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समस्या और दुःख एक नहीं दो हैं 127 सिंह का विश्वस्त मंत्री था सियार । सियार अत्यन्त बुद्धिमान और चतुर था। सिंह उस पर मुग्ध था। दोनों की घनिष्टता अनेक पशुओं के लिए ईर्ष्या की बात बन गई। सब जलने लगे। सभी एकमत होकर सियार के छिद्र देखने लगे। सभी चाहते थे कि सियार को यहां से हटा दिया जाए। उन्होंने उपाय खोजा। सिंह के रसोइयों को अपने पक्ष में मिलाया । सिंह के लिए जो मांस पकता, उसमें से अस्सी प्रतिशत सियार की गुफा में और शेष बीस प्रतिशत सिंह की गुफा में भेजा जाता । दो-तीन दिन यही क्रम चला। चौथे दिन सिंह ने पूछा—'मांस कम क्यों आ रहा है ?' अन्य जानवरों ने कहा- आपके मंत्री सियार का आदेश है कि अधिक भाग उनकी गुफा में भेजा जाए और आपको कम मांस दिया जाए। सिंह ने सुना । वह सियार की गुफा देखने गया। वहां मांस का ढेर लगा पड़ा था । उसका आवेश बढ़ा और उसने कहा- अभी मैं उस नीच सियार का काम तमाम कर देता हूं। वह नालायक है। सिंह की बुढ़ी मां गुफा में बैठी थी । उसने कहा—बेटे ! एक बार और सोचो। सिंह बोला- मैं आंखों से देख आया हूं। मां ने कहा – आंखों देखा भी तो झूठ हो सकता है ? यह आकाश दिखाई देता है नीला। पर नीला रंग है कहां ? जुगनू आग जैसा दिखाई देता है, पर आग है कहां ? इसलिए जांच करो, फिर निर्णय करना। सिंह ने सियार को बुलाकर पूछा— तेरी गुफा में इतना मांस क्यों? वह बोला— 'महाराज ! मैं तो चार दिनों से यहां था ही नहीं, मुझे ज्ञात नहीं है, किसने वहां मांस रखा है।' सिंह समझ गया और उसे षड्यंत्र का पता लग गया। 1 इन्द्रिय- चेतना के स्तर पर जीने वाला व्यक्ति यथार्थ जीवन नहीं जीता, झूठा जीवन जीता है । वह संवेदना का जीवन जीता है, ज्ञान का जीवन नहीं जीता ! ज्ञान और संवेदन एक नहीं, दो हैं । संवेदना से ऊपर उठे बिना सचाई ज्ञात नहीं हो सकती। जो दुःखी हैं वे संवेदना का जीवन जीते हैं या यों कहें जो संवेदना का जीवन जीते हैं वे दु:खी हैं। जो ज्ञान के स्तर पर जीते हैं वे कभी दु:खी नहीं होते । आदमी दुःख नहीं चाहता, पर वह दुःख भोगता है। इसके दो कारण हैं-आदत और असातावेदनीय कर्म । एक धनाढ्य व्यक्ति है । अपार संपत्ति, पर वह कहता है कि इस संसार में उस जैसा दु:खी व्यक्ति दूसरा कोई है नहीं । सभी सुविधाएं हैं। कोई कमी नहीं है । फिर दुःख क्यों ? यह आदत की लाचारी है। बीस वर्ष पहले किसी ने दो शब्द कह दिए । कहने वाला नहीं रहा, पर वे शब्द आज भी उसे चुभते हैं । उनकी चुभन से वह इतना दुःख भोगता है । उन शब्दों की स्मृति दुःख का सागर खड़ा कर देती है। यह है अहेतुक दुःख, आदतन दुःख । अपनी आदत के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy