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________________ अपनी आत्मा अपना मित्र 123 बताता, पर मित्र के समक्ष उसे नहीं छुपाता, सारा रहस्य उगल देता है। वह मित्र के रहस्य को भी जानने का प्रयत्न करता है और लेता है। मित्रता में छिपाव नहीं होता। जहां छिपाव आता है वहां मित्रता टूट जाती है। या मित्रता रहती है या छिपाव रहता है। दोनों साथ नहीं चल सकते। वह मित्र के घर खाता भी है और मित्र को खिलाता भी है। नीतिशास्त्र में मित्रता, प्रेम और प्रीति के ये छह लक्षण बताए गए हैं। अध्यात्म के आचार्यों ने भी मित्रता पर विचार किया, पर उसकी कसौटियां भिन्न हैं। वहां देने-लेने की बात प्राप्त नहीं होती। क्या दे और क्या ले? ज्ञान का आदान-प्रदान होता है। ज्ञान देने वाला गुरु और लेने वाला शिष्य। बस, इतना ही होता है। वहां गुप्त बात कुछ होती ही नहीं। अध्यात्म में स्पष्टता है। छिपाव है ही नहीं। छिपाव माया है। अध्यात्म माया से अछूता होता है। जहां माया है वहां अध्यात्म नहीं और जहां अध्यात्म है वहां माया नहीं। माया, प्रवंचना आदि व्यवहार की भूमिका पर चलते हैं। जहां शुद्ध अध्यात्म की भूमिका प्राप्त होती है, वहां से सारी बातें छूट जाती हैं। यही अध्यात्म का आदि-बिन्दु है। अन्यथा अध्यात्म को खोजा ही नहीं जा सकता। अध्यात्म में मित्र की खोज करते-करते एक निष्कर्ष पर पहुंच कर यह घोषणा की 'पुरिसा! तुम मेव तुमं मित्तं, किं बहिया मित्त मिच्छसि।' पुरुष! तू ही तेरा मित्र है। बाहर मित्र की खोज क्यों कर रहा है? 'अप्पा कत्ता विकत्ता य।' आत्मा ही सुख का कर्ता है और आत्मा ही दु:ख का कर्ता है। 'अप्पा मित्तममित्तं च आत्मा ही मित्र है और आत्मा ही शत्रु है। यह मित्र और शत्रु की परिभाषा हमारे समक्ष है। इसका परीक्षण करें। यदि आत्मा ही मित्र है तो मित्रता की सारी बात ही समाप्त हो जाती है। छोटा बच्चा भी दूसरों को मित्र बनाता है और बड़ा आदमी भी मित्र बनाता है। ऐसा माना भी जाता है कि जिसके मित्र और शत्रु नहीं हैं, उसका कैसा जीवन? कहा है 'सज्जन जाके सौ नहीं, दुर्जन नहीं पचास । ता सुत को जननी जनी, भार मरी नौ मास।।' पर जब हम अद्वैत की भाषा में सोचते हैं कि अत्मा ही मित्र है और आत्मा ही शत्रु है, तब यह बात गले नहीं उतरती। क्या हम किसी को मित्र न मानें? क्या हम किसी को शत्रु न मानें? कैसे संभव हो सकता है? पर हमें गहरे में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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