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________________ उपसंपदा : जीवन का समग्र दर्शन 119 ३. निषेधात्मक दृष्टिकोण। जीवनीशक्ति के क्षरण को रोकने के लिए प्रतिक्रिया-विरति का अभ्यास करना होता है। प्रतिक्रिया स्वाभाविक-सी बन गई है। इन्द्रियों से देखेंगे, सुनेंगे, चखेंगे तो प्रतिक्रिया होगी। मन से चिन्तन करेंगे तो प्रतिक्रिया होगी। प्रतिक्रिया को रोका नहीं जा सकता। प्रतिक्रिया-विरति का तात्पर्य है कि अतिमात्रा में प्रतिक्रिया न करें। ऐसी प्रतिक्रिया न करें कि वह प्रतिक्रिया इन्द्रिय और मन की शक्ति को ही खाने लग जाए। भोजन जैसा चाहा वैसा नहीं मिला तो प्रतिक्रिया हो गई। एक बार कभी ऐसा हो सकता है पर प्रतिक्रिया यदि लंबी बन जाती है, द्रौपदी का चीर बन जाती है, तब समस्या पैदा करती है। प्रतिक्रिया के कारण हमारी पचास प्रतिशत प्राणशक्ति नष्ट हो जाती है। क्रिया में जितनी शक्ति खर्च होती है, उससे अधिक प्रतिक्रिया में खर्च होती है। प्रतिक्रिया-विरति का साधना-सूत्र है समता की आराधना। जैसे-जैसे समभाव की वृद्धि होगी, प्रिय-अप्रिय के संवेदन से ऊपर उठने का अभ्यास होगा, वैसे-वैसे प्रतिक्रिया-विरति सधती जाएगी। प्रतिक्रिया पैदा करते हैं प्रिय संवेदन या अप्रिय संवेदन। इनके घेरे में यह विरति संभव नहीं है। इसलिए यह अभ्यास भी जरूरी है कि इनसे बचा जा सके। एक ही दिन में यह अभ्यास नहीं हो जाता। यह तो एक प्रकार का नशा है। जैसे शराब का नशा आदमी को पकड़ लेता है, फिर उसे छोड़ने में दिक्कत होती है, क्योंकि वह धीरे-धीरे स्नायविक मांग बन जाती है। जब उसके परिणामों का भान होता है तब आदमी उससे छूटने का उपाय करता है और धीरे-धीरे उसकी पकड़ से मुक्त हो जाता है। वैसे-ही इसका अभ्यास भी यदि दीर्घकाल तक चले तो वांछित परिणाम आ सकते हैं। __अभी-अभी रूसी नेता गोर्वाच्योव भारत आए थे। उन्होंने शराब के विषय में जो कहा, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है वे स्वयं शराब नहीं पीते और अपने देश रशिया को इस चंगुल से मुक्त करना चाहते हैं। उन्होंने कहा—शराब के अनेक नुकसान हैं १. जन्मजात बच्चों में बीमारियां आती हैं। २. रोग-निरोधक शक्ति कम हो जाती है। ३. अनुशासनहीनता आती है। ४. कर्तव्य के प्रति लापरवाही बढ़ती है। ५. अपराध बढ़ते हैं। आश्चर्य होता है कि जहां शराब पानी की तरह पी जाती है, वहां के अधिकारी उसके परिणामों से आतंकित होकर उसके निराकरण की चेष्टा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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