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१४. परिष्कार वैरवृत्ति का
'अप्पा मित्तममित्तं चं--- आत्मा ही मित्र है और आत्मा ही शत्रु है । शत्रु के साथ वैर होता है और मित्र के साथ प्रेम । संसार में प्रेम के लिए भी दूसरा चाहिए और वैर-विरोध के लिए भी दूसरा चाहिए। जब तक दूसरा सामने नहीं होता तब तक न प्रेम होता है और न वैर । अध्यात्म जगत् का नियम भिन्न है । वहां प्रेम भी अपने साथ होता है और वैर भी अपने साथ होता है। वहां दूसरा होता ही नहीं। आन्तरिक जगत् में स्वयं ही स्व है और स्वयं ही पर है। हम आत्म- मैत्री, स्व- मैत्री और आत्म-वैर, स्व- वैर की बात करें, साथ ही साथ जागतिक प्रेम और वैर की बात भी सोचें ।
वैर पांच कारणों से उत्पन्न होता है—
१. स्त्री के लिए
२. जमीन के लिए
३. वाणी के कारण
४. जातिगत द्वेष के कारण
५. अपराधजन्य ।
प्राचीन इतिहास नारी और भूमि के कारण हुए युद्धों से भरा पड़ा है। वाणी के कारण भी वैर-विरोध बढ़ता है। वाणी का घाव गहरा होता है । वह जीवनभर नहीं भरता । बात मन से निकलती ही नहीं । वाणी वैर उत्पन्न करने में अंह भूमिका अदा करती है। जातिगत या वंशगत द्वेष पीढ़ियों तक चलता रहता है । पांच-सात पीढ़ियां बीत जाती हैं, पर आठवीं पीढ़ी वाले लोग उसी वैर - विरोध को लेकर लड़ते हैं। मरते-खपते हैं । राजाओं का इतिहास वंशानुगत वैर से होने वाली लड़ाइयों से भरा पड़ा है। पांचवां कारण है कि कोई किसी का जान या अनजान में अपराध कर लेता है तो वैर की भावना उत्पन्न हो जाती है ।
महाभारत का एक प्रसंग है। राजा के महल में एक चिड़िया रहती थी । उसका नाम था पूजना । वह विलक्षण थी । राजा भी उसका सत्कार करता था। रानी के पुत्र हुआ और इधर चिड़ियां ने भी प्रसव किया। अब दोनों बच्चे साथ-साथ पल रहे हैं। चिड़िया का बच्चा भी बड़ा हुआ और राजकुमार भी बड़ा हुआ। दोनों प्रेम से रहते, खेलते । चिड़िया जंगल में जाती और दो फल लेकर आती। एक अपने बच्चे को देती और एक राजपुत्र को देती । वे फल
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