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समस्या है उदासी की
105 की समस्या को स्वयं सुलझाएं। दूसरे सहयोगी बन सकते हैं, मार्ग सुझा सकते हैं, किन्तु प्रत्येक आदमी को स्वयं की समस्या स्वयं को ही सुलझानी होती है।
संत तुकाराम के पास एक व्यक्ति आया। वह अफीम खाता था। उसने संत से कहा मैं अफीम छोड़ना चाहता हूं। आप कोई उपाय बताएं। संत ने पूछा। उसने कहा-प्रतिदिन एक तोला अफीम खा जाता हूं। छोड़ने का प्रयत्न करता हूं, पर छूटती नहीं। संत ने कहा कोई बात नहीं है। जितनी खा रहे हो, उतनी खाते जाओ। पर साथ-साथ एक काम करो। एक कोयला साथ में रखो और प्रतिदिन अफीम खाने के बाद उस कोयले से भींत पर एक लकीर खींचते रहो। जिस दिन लकीर खींचने के लिए कोयला न रहे, उसी दिन से अफीम खाना बंद कर दो।
उसने संत की यह बात स्वीकार कर ली। घर गया। प्रतिदिन अफीम खाता और एक लकीर कोयले से भींत पर लगा देता। दस-पन्द्रह दिनों में कोयला घिस गया। उसने अफीम खाना छोड़ दिया।।
यह उपाय कारगर हुआ। उपाय कोई भी सुझा सकता है, पर करना स्वयं को ही होता है। यदि स्वयं का पुरुषार्थ और संकल्प नहीं जुड़ता है तो समस्या का समाधान नहीं हो पाता।
उदासी से बचने के लिए निषेधात्मक भावों से बचना जरूरी है। निषेधात्मक भाव समस्या पैदा करते हैं। मनुष्य का स्वभाव कहें या कर्म का विपाक कहें, कुछ विचित्र-सा लगता है कि मनुष्य में विधायक भाव कम होते हैं और नकारात्मक भाव अधिक आते हैं। आदमी नकारात्मक भावों में जीता है। पोजिटिव शक्ति कम काम करती है, नेगेटिव शक्ति अधिक काम करती है। जो निषेधात्मक भावों में जीता है, वह उदासी से कभी छुटकारा नहीं पा सकता। वह जहां भी जाएगा उदासी उसका पीछा करेगी। वह कभी प्रफुल्लित नहीं रह पाएगा। आदमी की यह धारण बन गई कि कोई गाली दे या मारे-पीटे तो प्रफुल्लता रह नहीं सकती। यह एक बात है। पर ऐसी स्थिति में भी प्रसन्नता बनाई रखी जा सकती है। यदि प्रसन्नता नहीं रहती है तो इस दुनिया में कैसे जीवित रहा जा सकता है? तो क्या आदमी निरन्तर उदास ही रहे? उदासी के ये पारिवारिक सदस्य और हैं—खिन्नता, अवसाद, आत्महत्या का भाव आना, घर से पलायन करने की बात सोचना आदि-आदि। ये सारे निषेधात्मक भावों के उपजीवी हैं। __ नकारात्मक भाव मन में न आएं, इसका अभ्यास किया जा सकता है। प्रात:काल यह संकल्प लेकर उठे कि आज निषेधात्मक भावों को न आने दूंगा। विधायकभाव में रहूंगा। धीरे-धीरे इन नकारात्मक भावों से मुक्त होते जायेंगे।
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