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________________ 103 समस्या है उदासी की निर्विकल्प ध्यान से भी सचाइयां ज्ञात होती हैं, पर यह दीर्घ पथ है, लंबा रास्ता है। बहुत लंबा मार्ग और बहुत लंबा समय। विचय का मार्ग सरल है, छोटा है और थोड़े समय में वहां पहुंचा जा सकता है। यह प्राथमिक मार्ग है। जापान में जेन ध्यान पद्धति चलती है। उसमें समस्या के सहारे ध्यान की गहराई में जाया जाता है, एकाग्रता साधी जाती है। समस्या विभिन्न ढंग से दी जाती है। शिष्य यान. का प्रशिक्षण लेने आया। आचार्य ने कहा-चावल खाना है, पर पीछे एक दाना भी नहीं छोड़ना है। यह पहेली-सी लगती है। शिष्य इसी पहेली को लेकर ध्यान में बैठता है। दस दिन, बीस दिन, मास, छह मास, बारह मास बीत जाते हैं। पर अन्त में समाधान मिल ही जाता है। समाधान की अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते वह विशिष्ट ध्यान साधक बन जाता है। इस समस्या का शब्दार्थ कुछ और है और वाच्यार्थ कुछ और ही है। गहराई में जाकर सोचें तो, इसका तात्पर्य है कि प्रवृत्ति करना है, पर पीछे संस्कार नहीं छोड़ना है। हम इसे समझें। __ भारतीय दर्शन का यह महत्त्वपूर्ण सूत्र है कि प्राणी प्रवृत्ति से बंधता है और निवृत्ति से मुक्त होता है। प्रवृत्ति बांधती है, और निवृत्ति मुक्त करती है। प्रश्न है, आदमी प्रवृत्ति को छोड़ नहीं सकता तो उसके लिए निवृत्ति संभव नहीं है। जब निवृत्ति संभव नहीं है तो मुक्ति कैसे संभव होगी? वह कभी मुक्त होगा ही नहीं। यह बात सही भी है और सही नहीं भी है। बात सही है कि प्रवृत्ति बांधती है पर प्रवृत्ति तब बांधती है जब उसके पीछे संस्कार रह जाता है। प्रवृत्ति हुई और चली गई। हवा का झोंका आया और चला गया। पीछे कोई संस्कार नहीं छोड़ा, तो वह प्रवृत्ति बांधेगी नहीं। हमारी प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे संस्कार रह जाता है। संस्कार का रहना ही बंधना है। वीतराग भी प्रवृत्ति करता है और अवीतराग भी प्रवृत्ति करता है। वीतराग बंधता नहीं, अवीतराग या रागी बंधता है। आगमिक भाषा में कहा गया कि वीतराग की प्रत्येक प्रवृत्ति 'ईर्यापथिकी' प्रवृत्ति होती है। इसका तात्पर्यार्थ है कि प्रवृत्ति से कर्म के परमाणु पहले क्षण में आए, दूसरे क्षण में आत्मा का स्पर्श किया और तीसरे क्षण में निर्जीर्ण हो गए, टूट गए। कर्मों को टिकाने का श्लेष वीतराग में नहीं होता। वह नि:श्लेष होता है। अवीतराग में कषाय होता है। कषाय बंधन को पकड़ लेता है, कर्मों को पकड़ लेता है। भीत गीली है। मिट्टी फेंकी। वह चिपकेगी। भींत सूखी है। मिट्टी फेंकी। वह नीचे गिर जाएगी। गीलापन पकड़ता है। सूखापन नहीं पकड़ता। बंधन को टिकाता है राग। अराग बंधन को नहीं टिका पाता। इसलिए दोष प्रवृत्ति का नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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