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समस्या कलह की
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किए गए, पर वे सभी अर्थ हमारी समझ से परे हैं। हम समझें अध्यात्मवादी वह है जिसमें वैराग्य है, पदार्थ के प्रति त्याग है, पदार्थ के प्रति अनाकर्षण है। जिसमें त्याग और वैराग्य की चेतना जागृत है, वह अध्यात्मवादी है। भौतिकवादी वह है जिसमें पदार्थ का आकर्षण दिनोदिन बढ़ता जाता है और जो पदार्थ में ही त्राण खोजता है, जिसमें भोग की चेतना जागृत है, अविरक्ति है, वह भौतिकवादी होता
त्याग और वैराग्य शब्द भिन्न हैं, पर तात्पर्यार्थ में एक हैं। जिसमें त्याग और वैराग्य की भावना जाग गई वह अध्यात्म की ओर अभिमुख हो गया। वही यथार्थ में ध्यान का अधिकारी है।
हम इस सचाई को स्पष्ट समझ लें कि प्रेक्षाध्यान का अभ्यास त्याग की चेतना से जुड़ा हुआ अभ्यास है। ध्यान की यह धारा दो तटों के बीच बह रही है। इस तट पर भी त्याग है और उस तट पर भी त्याग है। यदि दो शब्दों में कहना चाहें तो इस तट पर त्याग और उस तट पर वैराग्य । त्याग और वैराग्य इन दो तटों के बीच ध्यान की धारा बह रही है। इन्हीं के बीच यह अग्रसर हो सकती है। ये दो तट नहीं हैं तो यह धारा भी नहीं बह सकेगी। फिर या तो बाढ़ बनेगी जो दूसरों के लिए खतरा साबित होगी। ध्यान भी खतरा बन सकता है। आज के भगवान् या योगी ध्यान को खतरा बना रहे हैं। हमें इस खतरे से बचना है। हम इन दोनों तटों त्याग और वैराग्य को मजबूत बनाएं, तभी ध्यान की निर्मल धारा आगे बढ़ेगी और जीवन में नया आनन्द, नया अनुभव और नई सरसता पैदा करेगी। इससे जीवन में निरन्तर प्राण-संचार होता रहेगा और तब व्यक्ति शक्ति और प्रेम का जीवन जीने में समर्थ होगा।
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