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महावीर का पुनर्जन्म
लडकियों के स्कल की योजना बनी। वह नेपोलियन के सामने रखी गई। नेपोलियन ने योजना को पढ़ा, सारे नियमों को पढ़ा। उसमें एक नियम था-छात्राएं हफ्ते में दो बार प्रार्थना किया करेंगी। नेपोलियन ने तत्काल पैंसिल हाथ में ली और उस नियम को काट कर लिख दिया-छात्राएं प्रतिदिन प्रार्थना किया करेंगी। प्रार्थना सप्ताह में दो दिन नहीं, प्रतिदिन हो। क्या प्रार्थना दो दिन की होती है? क्या यह भी काल-बद्ध नियम है?
दो दिन प्रार्थना और पांच दिन आराम, इस प्रार्थना का कोई अर्थ ही नहीं है। 'आत्मा भिन्न और शरीर भिन्न' यदि इसे दो दिन रटें और पांच दिन भुला दें तो इसका कोई अर्थ नहीं होगा। यह धर्म का शक्तिशाली मंत्र व्यक्ति के मन में रम जाए और दिन में जब कभी भी चेतना की थोड़ी-सी जागरूकता बढ़े, यह बात समझ में आ सकती है किन्तु वह जागने के बाद भी जागृत नहीं रहता। वह दिन में अनेक बार जागता हुआ भी सोया रहता है। जब क्रोध आता है, आदमी सो जाता है। जब घृणा, अहंकार या मूर्छा का भाव जागता है, आदमी जागृत नहीं रहता। जितने भी निषेधात्मक भाव हैं, मनुष्य के जागरण में बाधक बनते हैं। निषेधात्मक भावों में जीने वाला जागते हुए भी सोया रहता है। संदर्भ कर्म-विपाक का
यदि एक नए साधक को ध्यान में नींद आ जाए तो बात समझ में आ सकती है किन्तु जिनको साधना करते तीस-चालीस वर्ष बीत गए, यदि वे भी जप के समय, ध्यान और साधना के समय नींद लेते हैं तो इसका अर्थ होगा-उनका अभी भेद-विज्ञान की दिशा में प्रस्थान नहीं हुआ है। कर्म का विपाक भी विचित्र होता है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण का उदय तथा विपाक भी विचित्र होता है, मोह के प्रभाव भी विचित्र हैं। एक ही तराजू से सबको नहीं तोला जा सकता, एक ही आंख से सबको देखा नहीं जा सकता। इतनी विचित्रता के उपरांत भी न्यूनतम विकास प्रत्येक साधक में होना चाहिए। गरीब कोई हो सकता है पर एक वह गरीब, जो गरीबी की रेखा से नीचे जीता है, समाज विकास के लिए बड़ा खतरनाक होता है। जैसे व्यक्ति गरीबी की रेखा से नीचे न जाए वैसे ही साधक न्यूनतम मर्यादा से नीचे न जाए, वह अपेक्षित है। अधिकतम विकास काल के परिपाक से होगा, काललब्धि पकने के साथ-साथ होगा किन्तु न्यूनतम विकास की बात का निर्धारण आवश्यक है। 'आत्मान्यः पुद्गलश्चान्यः' यदि यह सूत्र प्रतिदिन बार-बार व्यक्ति के मानस में उभरता रहे तो न्यूनतम मर्यादा वाली बात संभव बन पाएगी। साधक की मर्यादा
साधक की मर्यादा है सम्यक् दर्शन। आत्मा और पुद्गल के भेद का स्पष्ट अनुभव नैश्चयिक सम्यग् दर्शन है। यह सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र भी है। आत्मा और पुद्गल के भेद का अनुभव करना और आत्मा में रमण करना, यह निश्चय नय में सम्यक् चारित्र है और इसी का नाम है-सम्यक् ज्ञान। सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की त्रिपदी इस सूत्र में समाविष्ट है। यदि इस दिशा में प्रस्थान नहीं होता है तो मानना होगा-जो परमात्मा जागना चाहिए,
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