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नैतिकता का आधार : नानात्व का बोध
जिज्ञासा और समाधान- ये दो तत्त्व हैं । इनके द्वारा चिन्तन और दर्शन का विकास हुआ है। शिष्य और गुरु- यह एक युगल माना जाता है। शिष्य भी व्यक्ति और गुरु भी व्यक्ति । इसका दूसरा युगल बन सकता है— जिज्ञासा शिष्य है और समाधान गुरु है । दर्शन के विकास में आश्चर्य, कुतूहल बहुत बड़ा हेतु बना
है ।
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एक शिष्य के मन में जिज्ञासा उभरी। वह गुरु के पास पहुंचा, वन्दना कर बोला – गुरुदेव ! मैं मनुष्य हूं और इस दुनिया में केवल मैं ही नहीं हूं। आकाश में देखता हूं तो बहुत सारे पक्षी उड़ रहे हैं। भूमि पर देखता हूं तो बहुत सारे पेड़-पौधे खड़े हैं। आपने मुझे बताया था - सब जीव समान हैं, आत्मा आत्मा में कोई अन्तर नहीं है फिर भी नानात्व कैसे बना? यह भेद कैसे आया? कोई मनुष्य है, कोई पक्षी है, कोई पशु है और कोई वनस्पति है । इस प्रकृति के प्रांगण में अनेकता है, कहीं एकरूपता नहीं है। यह क्यों?
समानो वर्तते जीवः, नानात्वं कथमिष्यते । मनुष्यो वर्तते कश्चित्, कश्चित् पक्षी पशुस्तरुः ।।
यूनान के कुछ दार्शनिक आत्मा आत्मा में भेद बताते थे । उनकी दृष्टि से सब आत्माएं समान नहीं हैं । पशु-पक्षियों की आत्माएं अलग हैं, वनस्पति की आत्मा अलग है और मनुष्य की आत्मा अलग है । वे आत्मा के ये तीन वर्ग मानते हैं किन्तु जैन दर्शन में कहा गया - सब जीव समान हैं। उनमें कोई भेद नहीं है। फिर यह नानात्व कैसे आया? नानात्व का हेतु क्या है?
नानात्व का कारण
आचार्य ने इस प्रश्न का समाधान दिया - वत्स ! सब जीव समान हैं । जीवों में कोई अन्तर नहीं है किन्तु समान होने पर भी नानात्व का एक कारण है
अस्त्यात्मा शाश्वतस्तेन गतिचक्रं
प्रवर्तते ।
अस्ति पुण्यं च पापं च नानात्वं च गतेस्ततः ।।
आत्मा शाश्वत है। व्यक्ति के मरने के बाद भी आत्मा की मृत्यु नहीं होती है। गति का एक चक्र चलता है। आत्मा एक गति में जाता है और वहां से दूसरी गति में जाता है । यह गति का चक्र निरन्तर चालू रहता है, रुकता नहीं
है ।
शिष्य ने पूछा- गुरुदेव ! गति - चक्र चलता है। उससे सबके सब मनुष्य बन जाए लेकिन यह क्यों होता है कि एक मनुष्य बनता है और दूसरा पशु । इसका कारण क्या है?
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