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नैतिकता का आधार : नानात्व का बोध
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गुरु ने कहा-इसका हेतु है पाप और पुण्य। प्राणी पुण्य के साथ जन्म लेता है, मनुष्य बन जाता है। प्राणी पाप के साथ जन्म लेता है, तिर्यञ्च योनि में चला जाता है, कुत्ता बन जाता है, चील बन जाता है, और कुछ बन जाता है।
दुनिया में नानात्व है, अनेकरूपता है। चार गतियां बताई गई हैं-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव। इनमें मनुष्य और तिर्यञ्च-ये दो गतियां प्रत्यक्ष हैं। नरक और देव-ये दो गतियां परोक्ष हैं। इनमें दो इन्द्रिय-ज्ञान का विषय है और दो अतीन्द्रिय ज्ञान का। परोक्ष को जानना आसान नहीं है, प्रत्यक्ष मनुष्य के सामने है। मनुष्य और तिर्यञ्च में बहुत बड़ा अन्तर है। मनुष्य ने बहुत विकास कर लिया किन्तु पशु आज भी वैसा का वैसा है जैसा वह हजारों वर्ष पहले था। हजार वर्ष पहले बैल गाड़ी से जुतता था और आज भी जुतता है। हजार वर्ष पहले कुत्ता ऐसे ही गलियों में भौंकता था और आज भी भौंकता है। कोई फर्क नहीं पड़ा। मनुष्य ने हजार वर्ष में बहुत विकास किया है। इन दो सौ वर्षों में भी उसने बहुत बड़ा विकास किया है।
आत्मा की अमरता है, गति का चक्र है और अपना-अपना पुण्य और पाप है, इसलिए यह गति का भेद हो रहा है। इस गति-भेद की पृष्ठभूमि में अपना-अपना किया हुआ शुभ-अशुभ कर्म, पुण्य और पाप कारण बन रहा है। यही धार्मिक जीवन या नैतिक जीवन जीने का बहुत बड़ा आचारशास्त्रीय आधार बनता है। नैतिक और धार्मिक क्यों बने?
प्रश्न होता है-आदमी नैतिक क्यों बने? धार्मिक क्यों बने? किसलिए बने? धर्म ऐसी चीज नहीं है, जिसका प्रत्यक्ष अनुभव हो। रोटी का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, दूध-चाय का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। भूख लगते ही मांग शुरू हो जाती है और मांग होते ही आदमी उसे खाता है। ऐसे धर्म की मांग क्यों नहीं होती? कोई भी दिन ऐसा नहीं उगा होगा, जिस दिन धर्म की भूख लगी हो। इसलिए उसकी अपेक्षा महसूस नहीं होती। जिसकी प्रत्यक्ष मांग है, उसकी जरूरत है। भूख लगती है इसीलिए रोटी चाहिए, पैसा चाहिए और पैसे के लिए कोई व्यापार चाहिए। यह प्रत्यक्ष मांग है। इसके लिए प्रेरणा देने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
साधु-साध्वियां बहुत उपदेश देते हैं, प्रवचन करते हैं। हजारों-हजारों गांवों में, हजारों-हजारों स्थलों में धर्म का प्रवचन होता है किन्तु ऐसा कोई प्रवचन मंडप नही बना, जहां रोटी खाने का उपदेश दिया जाता हो। जिसकी प्रत्यक्ष जरूरत है, उसके लिए प्रवचन की आवश्यकता नहीं होती। धर्म की बात प्रत्यक्ष नहीं है। अगर यह गति का नानात्व नहीं होता,सब आदमी समान होते, पुण्य-पाप का भेद नहीं होता तो धर्म की बात समझ में ही नहीं आती। मौत होती है तो धर्म की बात समझ में आती है। बीमारी होती है तो धर्म की बात समझ में आती है। यदि मौत नहीं होती, बीमारी नहीं होती, कोई दुःख नहीं होता तो शायद आदमी धर्म का नाम सुनना ही पसन्द नहीं करता। उसे धर्म केवल
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