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________________ ५२ महावीर का पुनर्जन्म प्राचीन रही है। जहां भाव पैदा होते हैं उस हृदय का न बुद्धि के साथ संबंध है, न मन के साथ संबंध है। इन्द्रियों का सम्बन्ध शरीर के साथ जुड़ा हुआ है। मस्तिष्क में उनके सारे केन्द्र हैं। इन्द्रियां उपादेय भी हैं व्यक्ति का सारा संपर्क सबसे पहले इन्द्रियों के माध्यम से होता है। हर धर्म में इन्द्रिय-संयम की बात कही गई है। इन्द्रिय-संयम करो, उन्हें उच्छृखल मत बनाओ। यह बात ज्ञान की दृष्टि से नहीं कही गई है। इन्द्रियों के ज्ञान को बढ़ाना बहुत अच्छा है। जैन दर्शन में एक शब्द का विशेष प्रयोग किया गया-इन्द्रिय-पाटव। दूर-दर्शन, दूर-श्रवण-ये योगज विभूतियां रही हैं। दूर की चीज को देख लेना, दूर की बात को सुन लेना, इन्द्रियों की कुशलता को बढ़ा लेना भी बहुत आवश्यक है। यह एक उलझन भरी बात है। एक ओर इन्द्रियों से काम लेना और जीवन की यात्रा के लिए उनका अधिकतम पटुता पूर्वक प्रयोग करना, इस स्वर का समर्थन किया गया तो दूसरी ओर इन्द्रियों को दुश्मन और चोर भी कहा गया, अवांछनीय और हेय भी बतलाया गया। इन दोनों के बीच में भेद-रेखा खींचना बहुत कठिन है। अध्यात्म के आचार्यों ने इनके बीच एक भेद-रेखा खींची है। उनका कथन है-जहां-जहां इंद्रियों के साथ मर्छा जड जाती है, वहां इंद्रियों को चोर, शत्रु और हेय कहा जा सकता है और जहां यह मूर्छा न जुड़े, कोरी ज्ञान की धारा रहे वहां इन्द्रियां बहुत उपादेय हैं। ज्ञान उपादेय है किंतु यदि ज्ञान के साथ मूर्छा का योग बनता है तो ज्ञान भी हेय बन जाता है। ये दोनों दृष्टिकोण बहुत साफ होने चाहिए। संयम करना है मूर्छा का। इन्द्रिय की मूर्छा आदमी को बीमार बना देती है। अगर व्यक्ति को शरीर से स्वस्थ रहना है तो उसे इंद्रिय-संयम करना ही होगा। कोई आदमी श्रावक बने या न बने, साधु बने या न बने पर जो स्वस्थ रहना चाहता है, उसके एक सीमा तक इन्द्रियों का संयम नहीं होता है वहां समस्याएं पैदा होती चली जाती हैं। इंद्रिय-असंयम का क्या परिणाम होता है, इसे जैन आगमों में एक कथा के द्वारा बहुत सुन्दर तरीके से समझाया गया है। असंयम का परिणाम एक राजा बीमार हो गया। बहुत इलाज कराए गए किन्तु राजा ठीक नहीं हुआ। एक पुराना अनुभवी वैद्य आया। उसने राजा को देखा और रोग के मूल को पकड़ लिया। वैद्य ने कहा-'महाराज! मैं आपकी चिकित्सा कर सकता हूं पर मेरी एक शर्त माननी होगी। मैं कहूंगा, वह काम आपको करना पड़ेगा।' । राजा ने कहा- 'आप जैसा कहेंगे मैं वैसा करूंगा। वैद्यजी की दवा से राजा स्वस्थ हो गया। वैद्य का काम पूरा हो गया। उसने कहा-महाराज! अब मैं जा रहा हूं। आप स्वस्थ हो गए हैं। आनन्द से रहें, पर पथ्य का पालन करना पड़ेगा।' 'कहिए, आपका पथ्य कौनसा है?' 'आपको जीवन भर आम नहीं खाना है।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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