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इन्द्रिय-संयम का प्रश्न
जीवन के चार पक्ष
जीवन विज्ञान एवं प्रेक्षाध्यान के संदर्भ में मनुष्य के जीवन को चार भागों में विभक्त किया गया-शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भावात्मक। जेम्स ने बुद्धि और मन को एक साथ संकल्पित किया है किन्तु हमारी दृष्टि में बुद्धि का पक्ष मन से भिन्न है। मन स्थायी तत्त्व नहीं है। चेतना स्थायी तत्त्व है, बुद्धि स्थायी तत्त्व है। बुद्धि और मन-दोनों को एक नहीं किया जा सकता। मन अलग है और बुद्धि अलग है। फ्रायड ने मन पर विचार किया। उसके सामने मूल प्रश्न था मांइड का। उन्हीं के शिष्य कार्ल गुस्ताव युंग ने इस विषय को और आगे बढ़ाया। युंग ने कहा-केवल माइंड से जीवन की व्याख्या नहीं की जा सकती इसलिए उन्होंने चित्त को और जोड़ दिया। मन और बुद्धि के द्वारा जीवन की पूरी व्याख्या की जा सकती है, इन दोनों के द्वारा जीवन को पूरी तरह से समझा जा सकता है।
जीवन का चौथा पक्ष है-आध्यात्मिक या भावात्मक। भाव बुद्धि से भी परे हैं। भावों का बुद्धि और मन के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। वे उत्पन्न होते हैं सक्ष्म शरीर के प्रकम्पनों से। सक्ष्म शरीर के प्रकम्पन, भावों के प्रकम्पन व्यक्ति के भीतर से इस स्थूल शरीर में आते हैं और हृदय में उत्पन्न होते हैं। हृदय को भावों का केन्द्र माना गया है। इस संदर्भ में एक प्रश्न उभरता है क्या यह पंपिंग करने वाला हृदय भावों का केन्द्र है? जीवन विज्ञान एवं प्रेक्षाध्यान के संदर्भ में हमने इस प्रश्न पर गंभीर मंथन किया। हमारा निष्कर्ष रहा-मानव शरीर में दो हृदय होने चाहिए-एक वह हृदय, जो धड़क रहा है, पंपिंग कर रहा है और एक वह हृदय है, जो मस्तिष्क में है। जो भाव भीतर से आते हैं, सूक्ष्म शरीर से आते हैं, वे मस्तिष्क के एक भाग में अभिव्यक्त होते हैं। भावों का केन्द्र वह हृदय नहीं है, जो फेफड़े के पास है। वह रक्त-शोधन का काम करने वाला है। भावों का केन्द्र वह हृदय है जो मस्तिष्क में है। प्रेक्षाध्यान के सन्दर्भ में उसका स्थान निर्धारित किया गया है हाइपोथेलेमस। यह भावधारा का हृदय होना चाहिए। आयुर्वेद का दृष्टिकोण |
कुछ वर्ष पूर्व आचार्यश्री अहमदाबाद में थे। वहां के प्रसिद्ध वैद्य थे गोविन्द प्रसाद जी। आचार्यवर के सान्निध्य में उनके घर पर एक गोष्ठी का आयोजन था। उस गोष्ठी में बोलते हुए प्रसंगवश मैंने कहा-मनुष्य के शरीर में हृदय दो होने चाहिए। यह पंपिंग करने वाला हृदय भाव का केन्द्र नहीं होना चाहिए। भाव का केन्द्र होना चाहिए मस्तिष्क में। इस सन्दर्भ में मैंने हाइपोथेलेमस की विशेष रूप से चर्चा की। यह सुनकर वैद्यजी तत्काल उठे और भीतर जाकर अपना एक छपा हुआ लेख लेकर आए। उस लेख के कुछ अशों को उद्धृत करते हुए वैद्यजी ने कहा-आप जो कह रहे हैं, वह सही है। प्राचीन आयुर्वेद में दो हृदय माने गए हैं। मैंने इस लेख में प्रमाणित किया है कि एक हृदय तो पंपिग करने वाला है और दूसरा मस्तिष्क में होता है। भेलसंहिता आदि अनेक ग्रन्थों के आधार पर इसे प्रमाणित किया गया है। आयुर्वेद में दो हृदय की मान्यता बहुत
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