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जीव और अजीव का द्विवेणी संगम
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अज्ञेय का मतलब है, जो नहीं जाना जा सकता। अजीव भी ज्ञेय और अज्ञेय-दोनों है। दृश्य पुद्गल ज्ञेय बनता है। धर्मास्तिकाय आदि अज्ञेय होते हैं। द्वैतवाद की स्वीकृति
जैन दर्शन द्वैतवादी दर्शन है। शंकराचार्य और कांट जैसे दार्शनिकों ने जड़ का अस्तित्व नहीं माना। केवल चैतन्य का, मन का अस्तित्व माना। जगत में जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह ज्ञान का विकल्प है, प्रत्ययवाद है। पदार्थ का वास्तव में अस्तित्व ही नहीं है। अस्तित्व है केवल चैतन्य का। जैन दर्शन ने इस बात को स्वीकार नहीं किया। उसने दोनों तत्त्वों को यथार्थ माना-जीव भी यथार्थ है, अजीव भी यथार्थ है। दोनों वास्तविक हैं। जीव और अजीव-दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है। यह द्वैतवाद की महत्त्वपूर्ण स्वीकृति है।
एक प्रश्न उभरा-क्या किसी काल में जीव अजीव बना या अजीव जीव बना? उत्तर दिया गया-ऐसा कभी संभव नहीं है। भगवान महावीर ने लोक-स्थिति के दस सूत्र बतलाए। उनमें एक सूत्र है
ण एवं भूतं वा भब्बं वा भविस्संति वा जं जीवा अजीवा भविस्संति अजीवा वा जीवा भविस्संक्ति-एवंप्पेगा लोगट्रिठती पण्णत्ता।
न ऐसा कभी हुआ है, न है और न होगा कि जीव अजीव बन जाए अथवा अजीव जीव बन जाए। एक शक्ति है-अगुरुलघु पर्याय। वह एक ऐसी शक्ति है, जो द्रव्य के गुण को त्रैकालिक बनाए रख सकती है। वह अजीव को जीव नहीं होने देती, जीव को अजीव नहीं होने देती। वह शक्ति अपने अस्तित्व की शृंखला को अनन्त काल तक अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित रखती है। उसी शक्ति के आधार पर जीव जीव बना रहेगा और अजीव अजीव बना रहेगा। तर्क का उपयोग क्यों?
हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए-इस विषय को तर्कवाद से सिद्ध नहीं किया जा सकता। कहीं भी जीव के संदर्भ में प्रश्न आए, आत्मा के संदर्भ में प्रश्न आए और हम उलझ जाएं, आत्मा को सिद्ध कर दें। इसे मध्यम मार्ग नहीं कहा जाएगा, इसे ऐकान्तिक आग्रह माना जाएगा। हालांकि जीव और आत्मा की सिद्धि के लिए तर्क हैं, उनका उपयोग भी करना चाहिए, जिससे भ्रान्ति न फैले।
बालचन्दजी नाहटा बुद्धिवादी आदमी थे। उन्होंने समाज में यह भ्रांति फैला दी-जीव में आत्मा नहीं है। कोई आत्मा को सिद्ध नहीं कर सकता। सारे समाज के लोग उनसे बात करने में घबराते थे। आचार्यश्री उस समय नये-नये आचार्य बने थे। जवानी का जोश था और अध्यात्म का बल था, तर्क का बल था। आचार्यश्री ने सोचा-इस भ्रांति को तोड़ना चाहिए। भ्रांति को तोड़ने के लिए तर्क बहुत काम का होता है। सामान्य आदमी अतीन्द्रिय चेतना की बात को नहीं पकड़ सकता। उसे तर्क या युक्ति से ही समझाना होता है। हालांकि तर्क का उपयोग एक सीमा के साथ होता है। उससे आगे की बात को अतीन्द्रिय चेतना पर छोड़ना होता है। आत्मा का वास्तविक ज्ञान उसको होता है, जो अतीन्द्रिय चेतना तक पहुंच जाता है। आचार्यश्री ने बालचन्दजी को इस विषय पर चर्चा का खुला आमंत्रण दिया। सरदारशहर के तेरापंथ समवशरण में चर्चा प्रारम्भ हई और उसका परिणाम आया-समाज में फैल रही इस भ्रांन्ति का समूल उन्मूलन।
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