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महावीर का पुनर्जन्म
आत्मा को जानने के लिए हम हेतुवाद का सहारा लें, अतीन्द्रिय चेतना का भी सहारा लें। जैन दर्शन समग्र दृष्टिकोण को स्वीकार करता है। वह किसी एक बात पर नहीं अटकता। सबका अपना-अपना अधिकार है, अपनी-अपनी सीमा और मर्यादा है। जीव को सिद्ध करने के लिए हमारे पास तर्क का बल है, किन्तु यह मानना चाहिए-वह हमारी मान्यता पर आधारित है। हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए- हमें आत्मा को जानना है। जानना तब होगा, जब हमारी साधना आगे बढ़ेगी हमारी अतीन्द्रिय चेतना जागेगी। आवरण है अजीव का
अजीव ने हमारी आत्मा पर एक आवरण डाल रखा है। उस आवरण को हम जितना हटाते चले जाएंगे, उतना ही प्रकाश बढ़ेगा, ज्योति बाहर फैलेगी। हमारी आत्मा पर एक जालीदार ढक्कन रखा हुआ है। हमारा सारा ज्ञान, उसकी रश्मियां उस जालीदार ढक्कन के छिद्रों में से बाहर आ रही है। किन्तु एक समय ऐसा आता है-अतीन्द्रिय चेतना जागती है, पूरे शरीर से ज्ञान की रश्मियां प्रस्फुटित होने लग जाती है। नन्दीसूत्र में बताया गया है-हमारा ज्ञान शरीर के
। से निकल रहा है। अवधिज्ञानी का ज्ञान भी शरीर के एक निश्चित भाग से निकलता है। जब केवलज्ञान उद्भूत होता है, प्राप्त होता है, पूरा शरीर एकाकार बन जाता है, ज्योतिर्मय बन जाता है, पूरे शरीर से ज्ञान की रश्मिया निकलने लगती है। जब अतीन्द्रिय चेतना जागती है, तब अज्ञेय ज्ञेय बन जाता है। केवली सारी बातों को जानता है पर बता नहीं सकता। आज तक किसी भी केवलज्ञानी ने पूरे सत्य का वर्णन नहीं किया है ओर भविष्य में भी कोई केवलज्ञानी पूरे सत्य का वर्णन नहीं कर पाएगा। सत्य का वर्णन वाणी तथा शरीर की सीमा से जुड़ा हुआ है। जानना अपना ज्ञान है किन्तु बोलने की अपनी सीमा
जीव और अजीव-इन दोनों पर हम अनेकान्त दृष्टि से विचार करें तो एक ऐसा मार्ग उपलब्ध होता है, जिसमें न कहीं अटकाव का प्रश्न है और न कहीं भटकाव का प्रश्न। हम इन दोनों को जानकर तथा मानकर यथार्थ को समझने का प्रयत्न करें तो जीवन में एक नया प्रकाश उपलब्ध हो सकता है।
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