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महावीर का पुनर्जन्म
सबको जानते हैं, देखते हैं। इसका अर्थ है-जैन दर्शन ज्ञेयवाद और अज्ञेयवाद-दोनों का समन्वय है।
' जहां अज्ञेयवाद की कोई बात कही जाती है, वहीं बड़ी समस्या पैदा हो जाती है। मेरे जीवन की ही एक घटना है। दिगम्बर परम्परा के प्रसिद्ध विडान जुगलकिशोर मुख्तार ने अनेकांत पत्रिका में एक प्रश्नवाली छापी। मैंने उसके उत्तर लिखे। एक प्रश्न के उत्तर में मैंने लिखा- 'मैं आत्मा–जीव को मानता हूँ, जानता नहीं हूं।' इस प्रश्न को लेकर बड़ा ऊहापोह पैदा हुआ। जो जीव को नहीं जानता, वह सम्यगदृष्टि नहीं होता। जो सम्यगदृष्टि नहीं है, वह मुनि कैसे हो सकता है? यह नास्तिकवाद है। इसका प्रबल विरोध हुआ। अनेक शिकायती-पत्र आचार्यवर के पास पहुंचे। आचार्यश्री ने पूछा-'तुमने क्या लिख दिया।' मैंने कहा- 'मैंने बिल्कुल यथार्थ बात लिखी है।' आखिर एक दिन तेरापंथ समाज के जाने माने व्यक्ति बीदासर में इकट्ठे हुए। श्रीचंदजी रामपुरिया, संतोषचंदजी बरड़िया, गोपीचन्दजी चौपड़ा आदि-आदि व्यक्ति मेरे पास बातचीत के लिए आए। मैंने कहा- 'मैं जीव को नहीं जानता, यह मेरा अज्ञान है। क्या आप जीव को जानते हैं?' एक व्यक्ति ने कहा-'आचारांग, सूत्रकृतांग आदि सूत्रों में लिखा है-आत्मा है, जीव है।' मैंने कहा- 'आपने यह उद्धृत किया है। यह ज्ञान कहां है? आप दस उद्धरण दे रहे हैं और मैं सौ उद्धरण दे सकता हूं किन्तु यह जानना नहीं है। जानना तब बनता है जब उसका साक्षात्कार हो जाए। एक व्यक्ति ने लिखा और हमने मान लिया। यह जानना नहीं, मानना है।'
जानना है साक्षात्कार। मानना है किसी की बात को स्वीकार करना। मानने की बात पर तर्क-वितर्क होगा, पक्ष और विपक्ष होंगे। दुनिया में विवाद का कोई अन्त नहीं है। तर्क और विवाद का अन्त वहीं आ सकता है, जहां जानने की बात प्राप्त होती है। जिस सत्य को जान लिया, उसमे तर्क की गुंजाइश नहीं होती, पक्ष और प्रतिपक्ष नहीं होता। साक्षात्कार के क्षेत्र में सबका एक ही अनुभव होता है। जितने प्रतिवाद, प्रतिपक्ष, तर्क और वितर्क हैं, वे मानने के क्षेत्र में हैं, जानने के क्षेत्र में नहीं है।
अज्ञेयवाद अतीन्द्रियवाद है। सोफिस्टवादी बुद्धि पर अटके रहे। महावीर ने बुद्धिवाद के साथ-साथ अज्ञेयवाद को भी स्वीकार किया। हम अतीन्द्रिय चेतना के द्वारा अज्ञेयवाद को जान सकते हैं। मति और श्रुत के द्वारा ज्ञेय को जान सकते हैं। दो प्रकार के ज्ञान हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। दो प्रकार के विषय हैं-ज्ञेय और अज्ञेय।
हम जीव और अर्जीव-इन टा तत्वों पर विमर्श करें। जीव हमारे लिए ज्ञेय भी है, अज्ञेय भी है। शरीर में रहा हुआ जीव हमारे लिए ज्ञेय है। चेष्टाओं
और प्रवृत्ति के द्वारा हम जीव को जानते है। हम जानते हैं-जब तक प्राण है तब तक आदमी जिन्दा है। प्राण चला जाता है, आदमी मर जाता है। जीव है इसीलिए सारी क्रियाएं चल रही हैं। जीव न रहे तो आदमी मुर्दा बन जाए। शरीरमुक्त जीव ज्ञेय नहीं बनता। ज्ञेय का मतलब है, जो जाना जा सकता है।
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