________________
७८
कर्म की प्रकृतियां
पौराणिक व्याख्या के अनुसार वासुदेव कृष्ण ने समुद्र का मंथन किया। समुद्र मंथन से चौदह रत्न निकले। समुद्र मंथन से रत्न निकलते हैं। जहर भी एक रत्न है, अमृत भी एक रत्न है। मंथन के बिना भीतर भरा हुआ जहर भी नहीं निकलता। आवश्यकता है मंथन की। हम आत्मा का मंथन करना नहीं जानते इसलिए कर्म की प्रकृति को नहीं समझ पाते। आत्म-मंथन के बिना कर्म की प्रकृतियों को नहीं समझा जा सकता।
एक सूरज बादलों से ढका हुआ है। हम इस प्रतीक्षा में हैं--सूरज उगे, प्रकाश की रश्मियां फैले, अन्धकार मिटे, हमारी देखने की शक्ति बढ़े। हमारे भीतर चेतना का एक अखण्ड सूरज है किन्तु वह बादलों से ढका हुआ है। वर्षा के मौसम में सूरज बादलों से ढक जाता है और कभी-कभी वह इतना ढक जाता है कि दिन भी रात जैसा लगने लगता है। यदि चेतना का सूरज अनावृत हो जाए, उसके प्रकाश से चेतना प्रकाशमय बन जाए तो बाहरी प्रकाश की अपेक्षा कम ही रह जाए।
कर्म की एक प्रकृति है-आवरण डालना। वह हमारे ज्ञान पर आवरण डालती है, पर्दा डालती है। ज्ञान का सूरज बादलों से ढ़क जाता है। यह कर्म का एक स्वभाव है। इस प्रकृति की निष्पत्ति है-ज्ञानावरण और दर्शनावरण।
कर्म की एक प्रकृति खुजलाहट पैदा करती है। हमारा शरीर स्वस्थ है, वातावरण स्वस्थ है किन्तु खुजलाने की ऐसी बीमारी पैदा हो गई, हमें बार-बार खुजलाना पड़ता है। मूर्छा के ऐसे परमाणु हमारे भीतर घुसे हुए हैं, जो खुजलाहट पैदा कर रहे हैं, हमारी जागरूकता को कम कर रहे हैं। चेतना का काम है सहज जागरूक रहना, सहज प्रकाशित करना। मूर्छा के कारण सहज जागरूकता की स्थिति नहीं बन पा रही है।
चेतना एक निरन्तर गतिशील तत्त्व है, वह अपने पैरों से चलने वाली है, उसे किसी वैशाखी की जरूरत नहीं है। कर्म की एक प्रकृति है-प्रतिस्खलन
पैदा करना। इस प्रकृति के कारण एक लंगड़ापन आ गया, गति में अवरोध आ Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org