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________________ कर्म की प्रकृतिया ४७७ गया। कर्म की यह प्रकृति व्यक्ति को बार-बार स्खलित करती है, उसकी गति में बाधा प्रस्तुत करती है। इस प्रतिरोधक प्रकृति का नाम है अन्तरायकर्म। हमारी चेतना के तीन मूल स्वभाव हैं--प्रकाश-आत्मा, जागरूक-आत्मा, गति-आत्मा। इन तीनों में बाधाएं हैं-आवरण, मूर्छा और शक्ति का प्रतिस्खलन। ज्ञान में अन्तर क्यों? __ प्रश्न होता है-आदमी-आदमी के ज्ञान में अन्तर क्यों? इसका कारण है-आवरण का तारतम्य। इस अन्तर की व्याख्या मनोविज्ञान नहीं कर सकता। मनोविज्ञान में बुद्धि के माप का एक प्रकार है-आयु। अवस्था के आधार पर बुद्धि का माप-तौल किया जा सकता है किन्तु दो व्यक्तियों की बुद्धि में इतना अन्तर क्यों है? इसका कोई समाधान मनोविज्ञान के पास नहीं है। यदि बुद्धि में अन्तर का कारण वंशानुक्रम होता तो अनपढ़ बाप का बेटा कभी बुद्धिमान नहीं बन पाता। यह सचाई है-अनपढ़ बाप के बेटे भी बुद्धिमान हो सकते हैं और आज भी ऐसे उदाहरण उपलब्ध हैं। इसका उत्तर कर्मवाद के द्वारा ही दिया जा सकता है। वैयक्तिक विशेषता है कर्म कर्म वैयक्तिक विशेषता है। इसमें वंशानुक्रम या पैतृक विरासत नहीं चलती। यह व्यक्ति की अपनी विशिष्टता है। एक व्यक्ति बहुत जागरूक जीवन जीता है और एक व्यक्ति बहुत मूर्छा का जीवन जीता है। सहज प्रश्न होता है-ऐसा क्यों? इसका उत्तर भी वंशानुक्रम या पर्यावरण विज्ञान के द्वारा नहीं दिया जा सकता। इसका एक ही समाधान हो सकता है-व्यक्ति का अपना-अपना कर्म इस भेद की पृष्ठभूमि में विद्यमान है। भारमलजी और कृष्णोजी-दोनों आचार्य भिक्षु के शिष्य थे। दोनों पिता-पुत्र थे। पिता मूर्छा में थे और पुत्र जागरूक, उसका परिणाम हुआ-आचार्य भिक्षु ने कृष्णोजी को संघ में रखने से इनकार कर दिया और भारमलजी को अपना उत्तराधिकारी बना दिया। वैयक्तिक विशेषता के संदर्भ में इस घटना को देखा जा सकता है। __ वैयक्तिक विशेषता के कारण शक्ति में भी अन्तर होता है। हम महाराणा प्रताप और महाराणा उदयसिंह को देखें। उन दोनों में शक्ति का कितना तारतम्य था! महाराणा प्रताप ने कहा था-मेरे और मेरे दादा के बीच में यदि पिताजी नहीं होते तो मैं क्या होता? महाराणा प्रताप के दादा महाराणा सांगा बहुत शक्तिशाली थे और स्वयं महाराणा प्रताप भी अत्यन्त शक्तिशाली थे किन्तु उनके पिता उदयसिंह भीरु और डरपोक थे। वह सोचा ही नहीं जा सकता-महाराणा प्रताप उदयसिंह के बेटे थे। पिता और पुत्र में कितना अन्तर था! इसका कारण था अपना कर्म। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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