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यह प्यास पानी से नहीं बुझती
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करते रहना। व्यक्ति अकेला बैठा है, कोई साथ नहीं है, पर संकल्प साथी बना रहेगा। आदमी कहीं एकान्त में चला जाए पर मन में कोई संकल्प न जागे, क्या यह संभव है? बहुत मुश्किल है ऐसा होना। भक्त के मन में विकल्प उठा-स्वर्ग का वातावरण कितना सुन्दर है! यह स्थल कितना रमणीय और मनोहर है! कितनी शीतल और शांत बयार चल रही है! इस समय गरमागरम मिष्टान्न और पक्वान्न खाने को मिल जाए तो स्वर्ग में आने का मजा आ जाए। उसी समय सामने एक आदमी गरमागरम पक्वान्न से भरा थाल लेकर समुपस्थित हो गया। भक्त ने भरपेट भोजन किया। अब उसे नींद सताने लगी। उसने सोचा-'यदि कोई अच्छी सी शय्या मिल जाए तो गहरी नींद ले लूं। दूसरे ही क्षण मनोरम शय्या तैयार थी। वह पलंग पर लेट गया। मन में विकल्प उठा- 'कोई पगचंपी करने वाला हो तो सारी थकान उतर जाए।' चिन्तन और संकल्प उभरा, अप्सराएं प्रस्तुत हो गई। वे उसकी पगचंपी करने लगीं। उसके मन में फिर एक संकल्प जागा- 'यदि मेरी पत्नी आ गई तो क्या होगा? वह जरूर मुझे झाडू से पीटेगी।' संकल्प क्रियान्वित हो गया। पत्नी झाडू लिए उसके पीछे दौड़ने लगी। आगे भक्त और पीछे पीछे झाडू लिए पत्नी। रास्ते में नारद जी मिल गए। उसे परेशान देख नारदजी बोले- क्यों दौड़ रहे हो?'
__ 'महाराज! देखिए! यह झाडू लिए मेरी पत्नी मुझे पीट रही है।'
'अरे! तुझे पता नहीं है-तू जिस वृक्ष के नीचे बैठा था, वह कल्पवृक्ष था। उसके नीचे बैठकर जो संकल्प किया जाता है, वह पूरा होता है। तुमने यह संकल्प क्यों किया? कोई अच्छा संकल्प करता तो बहुत लाभ मिलता। अन्यथा यही मुसीबत आएगी। संकल्प की प्रकृति
संकल्प जागता है तो अच्छा भी जाग जाता है, बुरा भी जाग जाता है। यह बंधन का स्वभाव है-वह पहले बांधेगा, आकर्षण दिखाएगा, ललचाएगा, लुभाएगा। जब बंध जाएगा तब बुरा विकल्प भी उभरने लगेगा। यह संकल्प की प्रकृति है। बहुत बड़ी घटना है-संकल्प विकल्प का नाश करना। वह तब संभव है जब जीवन में समता का विकास हो। लाभ-अलाभ आदि सभी स्थितियों में सम रहना बहुत कठिन है। इनकी शब्दों में अभिव्यक्ति जितनी सरल है, जीवन में इनका विकास उतना ही कठिन, कठिनतर और कठिनतम है। जब समता का विकास होता है, सामायिक सिद्ध हो जाती है। जैन लोग सामायिक करते हैं। पहले दिन सामायिक में जो मिलता है, दसवें दिन उससे कुछ अधिक मिलना चाहिए। यदि सामायिक करते चले जाएं, पांच-दस वर्ष तक सामायिक करते रहें
और जहां पहले दिन थे वहीं दस वर्ष बाद अपने आपको पाएं तो मानना चाहिए कि या तो सामायिक में सार नहीं है, या सामायिक करने वाले में सार नहीं है। जो निरन्तर सामायिक कर रहे हैं, प्रतिक्षण सामायिक की साधना में संलग्न हैं, क्या उनमें कुछ परिवर्तन नहीं आना चाहिए? दस वर्ष पहले जो मानसिक स्थिति है, उसमें दस वर्ष बाद भी बदलाव नहीं आना चाहिए? यदि मानसिक स्थिति मे
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