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त्याग है दुःख से बचने के लिए
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मनुष्य कभी तृप्त नहीं होता। समुद्र कभी तृप्त नहीं होता, चाहे उसमें कितनी ही नदियां गिर जाएं। भोग का एक परिणाम है अतृप्ति। यदि किसी चीज की आदत पड़ गई और वह आसानी से नहीं मिलती है तो व्यक्ति उसे चुराने लग जाता है। यह अतृप्ति चोरी की आदत पैदा करती है। जो चोरी करेगा, उसे झूठ बोलना पड़ेगा। वह माया-मृषा का प्रयोग करेगा। झूठ को छिपाने के लिए माया को रचना पड़ेगा। उत्तराध्ययन में भोग के इस परिणाम का मार्मिक चित्रण है-मनुष्य इतना कुछ करने पर भी दुःख से मुक्त नहीं होता
फासे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढिं। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ।। तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुसं वड्डई लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ।।
सूत्रकार कहते हैं-जब व्यक्ति झूठ बोलता है तब उसके मन में पहले तनाव पैदा होता है। झूठ बोलते समय माया रचनी पड़ती है कि झूठ कैसे बोलूं । यह चिन्ता सताती है-कहीं झूठ पकड़ा न जाए। उसका हृदय धड़कने लग जाता हे। झूठ बोलने के बाद मन में पश्चात्ताप होता है-कहीं झूठ प्रकट न हो जाए। किसी को पता न लग जाए। उससे कर्म का महान बंध होता है। इस प्रकार अतृप्त होकर चोरी करने वाला व्यक्ति दुःखी और आश्रयहीन बन जाता है
मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकााले य दुही दुरते। एवं अदत्ताणि समाययंतो, फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो।।
लोभ और आसक्ति के साथ दुःख की एक परम्परा जुड़ी हुई है। त्याग इसलिए है कि हम इस दुःख की परम्परा से बच सकें। त्याग सुख छुड़ाने के नहीं, दुःख से बचाने के लिए है। यदि यह बात समझ में आ जाए तो धर्म का सही मूल्यांकन हो सकता है और यह बात समझ में आ सकती है-विषय को नहीं, विकार और दुःख को दूर करो। यदि हम थोड़ा-थोड़ा त्याग करना सीख जाएं, जिससे जीवन का काम भी चल सके और इन दुःखों से भी बचते रहें। हमारे तीर्थंकरों, अध्यात्म के आचार्यों ने यह मध्यम मार्ग सुझाया है, जो इस भव में भी कल्याणकारी है और परभव में भी कल्याणकारी है। इस मार्ग का मूल्यांकन करना और जीना, जीने की कला को उपलब्ध होना है। जिसे यह कला उपलब्ध हो जाती है, उसे दुःख का रहस्य उपलब्ध हो जाता है।
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