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________________ ४६२ महावीर का पुनर्जन्म महाराज! क्या करें? हम सामाजिक प्राणी हैं, हमें मनुहार माननी पड़ती है और जब मनभावन चीज सामने आ जाती है जब रहा भी नहीं जाता। उस समय खाना ही अच्छा लगता है। यह वर्तमान क्षण का सुख कितना दुःख देता है। हम यह सोचे-धार्मिक व्यक्ति कुछ छुड़ा रहा है, त्याग करा रहा है, वह गलत रास्ते पर नहीं ले जा रहा है। वह दुःखों की ओर नहीं ले जा रहा है किन्तु महान दुःख से बचा रहा है। वह यह सचाई बता रहा है-थोड़े से सुख के लिए ढेर सारे दुःखों को मत बुलाओ। यह त्याग का मार्ग दुःख से बचने का मार्ग है। धर्म के लोगों ने यह नया रास्ता खोजा था-आदमी को दुःख से बचाया जाए। धर्म यह नहीं कहता-सब कुछ त्याग दो, सब कुछ छोड़ दो। वह यह कहता है-तुम इन सबके बीच रहते हुए भी भोगों में लिप्त न बनो। कमल की तरह इतने अलिप्त रहो कि लेप न लगे, आसक्ति न बढ़े। यदि व्यक्ति इतना समझ लेता है तो वह जीने की कला को समझ लेता है। भोग का परिणाम __हम उत्तराध्ययन का बत्तीसवां अध्ययन पढ़ें। उसमें इस विषय को अत्यन्त गहराई और सूक्ष्मता से छुआ गया है। हम भोजन का ही उदाहरण लें। व्यक्ति ने किसी चीज को खाया। खाने में कोई विशेष बात नहीं है। जीवन निर्वाह के लिए भी खाना आवश्यक है पर जिस चीज को खाया, उसके साथ एक आसक्ति बन गई। आसक्ति एक बंधन है। उसकी पूर्ति के लिए हिंसा करनी पड़ती है। हिंसा के द्वारा उस चीज का उत्पादन करना पड़ता है, रक्षण, संग्रह और व्यापार करना पड़ता है। उसका वियोग न हो, इसकी चिन्ता बनी रहती है और उसके उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती। इसलिए उसमें सुख कहां फासाणवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे य कहिं सुहं से?, संभोगकाले य अतित्तिलाभे।।। क्या व्यक्ति खाकर तृप्त होता है? आदमी कहता है-मैं तृप्त हो गया पर दो-तीन घंटा बीतने के बाद भूख फिर सताने लग जाती है। अमीर हो या गरीब, कोई भी तृप्त नहीं होता। व्यक्ति सुबह नाश्ता करता है, तृप्त हो जाता है। दोपहर का समय आता है, फिर अतृप्ति उभर आती है। आग कभी तृप्त नहीं होती। उसमें कितना ही ईंधन डाले, वह तृप्त नहीं होगी। आदमी भी कभी तृप्त होता ही नहीं है। चंदा देने वाले लोग इस सचाई को जानते हैं। कुछ लोग चन्दा मांगने के लिए सेठ साहब के घर आए। सेठ से प्रार्थना की-'आप कुछ चंदा दें अकाल राहत कार्यों के लिए।' सेठ बोला-'भाई साहब! क्या आपने आज का समाचार-पत्र नहीं पढ़ा उसमें भारी वर्षा की घोषणा की गई है?' "सेठजी! अकाल राहत के लिए नहीं तो बाढ़ राहत के लिए चन्दा दें, बाढ़-पीड़ितों के लिए चंदा दें। अकाल मिटते ही बाढ़ तैयार है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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