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________________ ३० ईश्वरवादी अवधारणा दर्शन की दो धाराएं हैं-ईश्वरवादी धारा और आत्म-कर्तृत्ववादी धारा । ईश्वरवादी धारा में कोई व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं है । ईश्वरवाद का प्रसिद्ध श्लोक हैअज्ञो जन्तुरनीशो ऽयमात्मनः सुख दुःखयो । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्, स्वर्गं वा स्वभ्रमेव वा ।। जीव अज्ञ है। सुख-दुःख उसके अधीन नहीं है। वह ईश्वर की प्रेरणा से ही स्वर्ग अथवा नरक को प्राप्त होता है । महावीर का पुनर्जन्म आदमी जो भी काम करता है, ईश्वर की प्रेरणा से करता है। उसका अपना कोई कर्तृत्व नहीं है । जैसा ईश्वर चलाता है वैसा चलता है। इस संदर्भ में एक बहुत बड़ा आचारशास्त्रीय प्रश्न उपस्थित होता है-यदि ईश्वर के द्वारा प्रेरित व्यक्ति काम करता है तो वह अपने किसी भी कर्तव्य के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। अपने कृत के प्रति व्यक्ति उत्तरदायी तभी हो सकता है, जब वह अपने स्वतन्त्र संकल्प के द्वारा कोई कार्य करता है । काण्ट का अभिमत जर्मन के प्रसिद्ध दार्शनिक एम्यूनल काण्ट ने नैतिक दायित्व की, कर्त्तव्य की जो परिभाषा की है, उसका एक अंश माना है - स्वतन्त्र संकल्प । व्यक्ति का वह संकल्प स्वतन्त्र है, जो किसी के द्वारा प्रभावित नहीं है, किसी के द्वारा निर्धारित नहीं है । संकल्प की स्वतन्त्रता में दोनों बातें होनी चाहिए। अगर व्यक्ति का संकल्प दूसरे के द्वारा प्रभावित है तो वह संकल्प स्वतन्त्र नहीं हो सकता । यदि वह किसी के द्वारा निर्धारित है तो भी स्वतन्त्र नहीं हो सकता । यदि व्यक्ति का संकल्प किसी दूसरी शक्ति के द्वारा निर्धारित है, किसी दूसरे से प्रभावित है तो उसका उत्तरदायित्व वह नहीं ले सकता, वह उसका उत्तरदायी नहीं हो सकता । एक आदमी चोरी करता है यदि उसका कर्तव्य भी किसी दूसरी शक्ति से प्रेरित है, प्रभावित है या निर्धारित है तो चोर का कोई दोष नहीं हो सकता। उत्तरदायी कौन? मालिक ने कहा- तुम जाओ और अमुक घर की वह चीज उठा लाओ। नौकर गया और उठा लाया। अब उत्तरदायी कौन बनेगा? मालिक बनेगा या नौकर ? नौकर तो मात्र काम करने वाला है, वह उत्तरदायी नहीं है । उत्तरदायी वह है, जो उसे प्रेरित कर रहा है, उसके कार्य को निर्धारित कर रहा है। जैन दर्शन आत्म-कर्तृत्व में विश्वास करता है। प्रत्येक काम के लिए व्यक्ति स्वयं उत्तरदायी है। फिर वह चाहे शुभ हो या अशुभ। दूसरा व्यक्ति उत्तरदायी नहीं है । उसका संकल्प किसी दूसरे के द्वारा निर्धारित नहीं है । 'मुझे यह काम करना चाहिए' यह इच्छाकार का प्रयोग है। महावीर के पास कोई दीक्षा लेने आता । महावीर कहते - अहासुहं देवाणुप्पिया - देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो । यह है संकल्प की स्वतन्त्रता । किसी साधु को किसी दूसरे साधु से काम कराना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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