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________________ त्याग है दुःख से बचने के लिए दो मार्ग ४५६ प्रत्येक व्यक्ति में विवेक है। मनुष्य में विवेक का विकास हुआ है इसलिए वह विवेक का उपयोग करना जानता है। दो मार्ग उसके सामने हैं-संसार का मार्ग और मोक्ष का मार्ग । भोग भोगो, पांच इन्द्रियों के भोग का आसेवन करो - यह है संसार का पथ । भोग को त्यागो, इन्द्रिय-विषय का निग्रह करो - यह है मोक्ष का पथ । दो छोर बन गए - एक भोग का और दूसरा त्याग का । इन दोनों के बीच खड़ा मनुष्य क्या करे? भोग करे या त्याग ? दो किनारों के बीच पानी का प्रवाह चलता है। हम किनारों को पकड़ें या बीच में बह रहे पानी को ? यदि इन्द्रियों से काम न लें तो जीवन की यात्रा नहीं चलेगी। जब-जब व्यक्ति आंख से अच्छा रूप देखता है, कान से अच्छा शब्द सुनता है, जीभ से अच्छी चीज चखता है, नाक से अच्छी सुगंध लेता है तब-तब उसे सुख मिलता है । इस दृष्टि से विचार करें तो लौकिक मार्ग, संसार का मार्ग अच्छा लगता है। एक प्रश्न आता है-धार्मिक लोगों की यह क्या समझदारी है? आदमी सुख भोग रहा है, उसे छुड़ाना क्या समझदारी है? परोसी हुई थाली को ठुकरा कर आगे की आस करना कौनसी समझदारी है? पांचों इन्द्रियों के भोग भोगने में आदमी को सुख मिलता है। उस स्थिति में अलौकिक मार्ग/मोक्ष मार्ग कहता है - इनको छोड़ो, त्याग करो, क्या यह सुख छुड़ाने की बात नहीं है? क्या यह अस्वाभाविक बात नहीं है? किसी ने गाली दी, गुस्सा आया, उस समय धर्म कहता है - तुम क्षमा करो। गुस्सा करना स्वाभाविक बात है, सारी दुनिया कर रही है। धर्म के लोग जो कह रहे हैं, वह अस्वाभाविक बात है, अलौकिक बात है । क्या सुखों को छुड़ाने की बात सही हैं? इस प्रश्न को भारतीय और पाश्चात्य चिन्तकों ने भी उभारा - इस त्याग की बात ने जीवन को निराशावादी और पलायनवादी बना दिया है? एक छोटे लड़के को साधु बना देते हैं। उसने क्या देखा, क्या भोगा? बेचारे के सुख को छीन लिया । क्या धार्मिक लोगों का कर्तव्य यही है कि वे लोगों को सुख से वंचित करते चले जाएं? अपातभद्र : परिणामविरस गर्मी का मौसम है । एक युवक से कहा जाए- 'भाई! ठण्डा पेय पीओ, आईसक्रीम खाओ, वातानुकूलित मकान में रहो, कार में एयर कंडीशनर लगा लो, बादाम का सरबत पीओ, जिससे दिमाग तर रहे, शरीर बिल्कुल स्वस्थ रहे ।' यह बात युवक को प्रिय लगती है । यदि उसे कहा जाए - तुम उपवास करो, ज्यादा ठण्डी चीजें मत खाओ । वातानुकूलन में रहोगे तो तुम्हारी सहिष्णुता नष्ट होती चली जाएगी। यह बात उसे अच्छी नहीं लगेगी। एक उसे सुख देने वाली बात है और दूसरी उसे कठिनाई में डालने वाली बात है। पहली बात अच्छी लगती है, सीधी गले उतर जाती है, दूसरी बात गले में अटक जाती है। साधु-संत लोगों को त्याग की प्रेरणा देते हैं। क्या वे सचमुच दुःख की ओर ले जा रहे हैं? इस बिन्दु पर हम सोचें, तो यह प्रश्न समाहित होगा । बहुत बार ऐसा होता है - लगता है कि अमुक बात दुःख की ओर ले जा रही है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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