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हिमालय में भी एकांत कहां रहा। क्या वहां अणुधूली नहीं पहुंची है? गंगा का पानी दूषित हो गया, हिमालय भी दूषित हो गया, आकाश और पृथ्वी - सब कुछ दूषित बनते जा रहे हैं । इस स्थिति में पलायन करने की बात नहीं सोचनी है। हम जीवन की कला को सीखें और वह कला है विवेक । हम ऐसी शक्ति जगाएं, जो विवेचन कर सके, छान सके। कोई भी चीज सीधी न जाए, छन-छन कर जाए, विशुद्ध रूप में न जाए। जब सब कुछ भीतर चला जाता है तब समस्या पैदा हो जाती है और उसे दूर करने के लिए विश्लेषण तत्त्व का उपयोग करना होता है। जहां गांवों में कच्चे कुओं का पानी आता है वहां पानी के साथ रेत घुलमिल जाती है। पानी छानने के बावजूद पानी गंदला और धुंधला रह जाता है । उस धुंधलेपन को मिटाने के लिए पानी में फिटकरी का प्रयोग किया जाता है । फिटकरी के प्रयोग से रेत नीचे जम जाती है और पानी नितर कर साफ हो जाता है, पीने योग्य बन जाता है ।
मनुष्य ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विवेक का प्रयोग करना सीखा है। जो कुछ आता है, उसे पूरा नहीं लेता । मनुष्य फल लाता है पर उसके छिलके को फेंक देता है। हालांकि आजकल यह विचार भी बन रहा है— छिलका भी नहीं डालना चाहिए। छिलका खाना कई दृष्टियों से उपयोगी है। मंत्री मुनि मगनलालजी कहा करते थे- 'थली प्रांत की बहिने करेले के बीज को निकाल कर फेंक देती हैं । वे यह नहीं जानती कि करेले का बीज स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा होता है।' यह सचाई है, पर इससे जुड़ी सचाई यह भी है—कुछ तत्त्व ऐसे होते हैं, जिन्हें डालना और फेंकना होता है। यह फेंकने और छोड़ने की बात विवेक चेतना से प्राप्त होती है। यदि यह विवेक नहीं होता तो आदमी जी नहीं पाता । केवल मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी विवेक करते हैं। गाय और भैंस जंगल में चरने के लिए जाती हैं। क्या वे सब कुछ खाती हैं? वे विवेक से खाती हैं - खाने की चीज खाती हैं, न खाने की चीज की ओर मुंह भी नहीं करती। प्रत्येक पशु प्रत्येक वस्तु नहीं खाता। ऊंट का खाना अलग है, गाय और भैंस का खाना अलग है। बकरी के लिए कहा जाए है कि वह सब कुछ खा जाती है। कुछ हाथ न लगे तो कांटे की बाड़ भी खा जाती है ।
आचार्यश्री का लाडनूं चतुर्मास था । हम बाहर से घूमकर आ रहे थे। संध्या का समय था । हमने देखा - बकरियां बाड़ों पर चढ़कर सूखे कांटे चबा रही थी । यह देखकर सहसा मन में एक प्रश्न उभर आया । चरवाहे से पूछा - 'अरे भाई! अभी बरसात का मौसम है। खाने को हरा घास बहुत है । ये बकरियां बाड़ के कांटे क्यों चबा रही हैं?" चरवाहे ने घड़ाघड़ाया उत्तर दिया- 'महाराज ! आदमी मिठाई खाने के बाद भुजिया खाता है, पापड़ खाता है । ये जंगल में इतना मीठा घास चर कर आई हैं। अब मुंह साफ करना है, भुजिया या पापड़ खाना है तो
ये कांटे ही खाएंगी।'
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